Haj (हज)

Haj (हज)

हज

बहुत दिनों पहले हजरत इब्राहीम (अलैहि.) और हजरत इस्माईल (अलैहि.) ने मक्का मुअज्जमा में अल्लाह की इबादत के लिए एक घर बनाया था। उसको खाना-काबा या बैतुल्लाह (अल्लाह का घर) कहते हैं। रसूल हजरत मुहम्मद (सल्ल.) मक्का मुअज्जमा में पैदा हुए थे। जब आप पैदा हुए थे तो कुछ गुमराह लोगों ने खाना-काबा में पत्थरों के बुत रख दिये थे और उनकी पूजा करते थे। प्यारे रसूल (सल्ल.) ने खाना-काबा को बुतों से पाक किया और सारी दुनिया में तौहीद फैलाने और एक खुदा की इबादत की तालीम देने के लिये खाना-काबा को मर्कज (केन्द्र) करार दिया।

हज
कुछ तयशुदा दिनों में खाना-काबा की जियारत करने और अरफात के मैदान में कुछ इबादतें करने को हज कहते हैं। हज इस्लाम की बड़ी अहम इबादत है। नमाज, रोजा जिस्मानी इबादत हैं और जकात माली इबादत है। हज जिस्मानी इबादत भी है और माली भी। हज मालदार आकिल, बालिग, तन्दुरूस्त मुसलमानों पर उम्र भर में सिर्फ एक बार फर्ज है। रास्ते का महफूज (सुरक्षित) होना और वापसी तक बीवी-बच्चों के लिये खर्च का मौजूद होना भी जरूरी है और औरत के लिये भी जरूरी है कि उसके साथ सफर में कोई महरम (जिससे पर्दा न हो) भी हो जैसे बाप, भाई, बेटा या शौहर।

हज कब फर्ज हुआ
जब प्यारे रसूल (सल्ल.) ने मदीना को हिजरत की और मुसलमानों ने जरा इत्मीनान की  सांस ली तो सन्‌ 6 हिजरी में अल्लाह ने हुक्म भेजा। 'अल्लाह को खुश करने के लिये हज और उमराह करो।' मगर इस साल मक्के के काफिरों ने आप (सल्ल.) को हज नहीं करने दिया। और  आप (सल्ल.) यों ही वापिस आ गये। सन्‌ 10 हिजरी में आप कई हजार सहाबा (रजि.) के साथ मदीना मुनव्वरा से हज के लिये तशरीफ़ ले गये और एक लाख से ज्यादा लोगों के साथ आप (सल्ल.) ने हज अदा फरमाया।
हज को फजीलत
इस्लाम में हज की बड़ी फजीलत है। कुरआन शरीफ में है। अल्लाह की खुशनूदी के लिये उन लोगों पर हज फर्ज है जो वहां तक जाने की ताकत रखते हों और जो आदमी हज से इन्कार करे तो अल्लाह को उससे कोई मतलब नहीं, अल्लाह तआला सारे जहान वालों से बेनियाज है।' हदीस में भी जगह-जगह इसकी फजीलत आई है। प्यारे रसूल (सल्ल.) ने फरमाया, 'जिस आदमी ने अल्लाह को खुश करने के लिये हज किया और हज में तमाम बेशर्मी की बातों से अलग रहा और किसी से लड़ाई झगड़ा न किया और न ही कोई और बुरा काम किया। ऐसा आदमी जब हज से वापिस होगा तो गुनाहों से ऐसा पाक-साफ होगा जैसा मां के पेट से पैदा होते वक्त था।' बेशक हज से तमाम बुराइयां दूर हो जाती है। मगर जबकि हज करने वाले की गरज सिर्फ अल्लाह को खुश करना हो, लोगों को दिखाना, नाम पैदा करना और कोई दुनिया का फायदा हासिल करना न हो। जिहाद इस्लाम में बड़ी अफजल इबादत है। जिहाद अल्लाह की राह में जान लड़ा देने का नाम है। इससे बड़ी नेकी और क्या होगी। मगर प्यारे रसूल (सल्ल.) ने एक बार फरमाया, 'औरतों के लिए 'हज' जिहाद है।'
आप (सल्ल.) ने यह भी फरमाया कि 'अगर' किसी आदमी के पास रास्ते का खर्च भी हो और सवारी भी और फिर वह हज न करे, तो उसके बिना हज किये मर जाने और यहूदी या ईसाई हो कर मर जाने में कोई फर्क नहीं है।' हज का बहुत बडा सवाब हैं। आप (सल्ल.) ने फरमाया, 'हज का बदला जन्नत है।' और आप (सल्ल.) ने फ़रमाया, 'हज और उमराह करने वाले अल्लाह के मेहमान है। अगर वे दुआ करें तो अल्लाह उनकी दुआयें कुबूल फरमाये और वे मगफिरत चाहें तो अल्लाह तआला उनकी मगफिरत फरमाये।'
प्यारे रसूल (सल्ल.) के बाद सहाबा (रजि.) भी हज का बड़ा एहतमाम करते थे। खुलफाऐ राशिदीन भी अपने-अपने जमानों में बडे़ एहतमाम से हज फरमाते और दूर-दूर से मुसलमान हाकिमों को बुला कर हालात मालूम करते। और मशवरे देते और कोई बहुत जरूरी हुक्म देना होता तो हज के आम मजमे में ऐलान फरमाते ताकि इस्लामी हुकूमत के एक-एक कोने में वह हुक्म  पहुँच जाये। हजरत उमर (रजि.) ने एक बार फरमाया, 'जो लोग कुदरत रखते हुए हज नहीं करते हैं उनके खिलाफ मैं जिहाद करूंगा।' हजरत अबू सईद (रजि.) फरमाते हैं, 'कयामत उस वक्त आयेगी जब लोग खाना-काबा का हज करना छोड़ देंगे।'
हज्ज की इस्तिलाहें
1. इहराम -
हज का खास लिबास पहनना, हज की निय्यत करना। और हज की दुआ करना।
2. मीकात –
वह इलाका जहां पहुंच कर हज करने वाले इहराम बांधते हैं।
3. तल्बियह –
इहराम बांधने के बाद से हज खत्म होने तक उठते-बैठते और हज के अरकान अदा करते वक्त जो दुआ पढ़ते हैं उसको तल्बियह कहते है। तल्बियह यह है -
'ऐअल्लाह! मैं तेरी पुकार पर तेरे दरबार में हाजिर हूं तेरा कोई साझी नहीं मैं तेरे दर पर हाजिर हूं। बेशक तमाम तारीफें और सारी नेमतें तेरे लिये हैं। बादशाहत तेरे ही लिये है। तेरा कोई साझी नहीं।'
4. तहलील –
'ला इला ह इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह पढ़ना।
5. तवाफ –
खाना काबा के गिर्द चक्कर लगाना।
6. बुकूफ –
अरफात और मुज्दल्फा में कुछ देर ठहरना।
7. रमी    -
जमरा के पास कंकरियां मारने को रमी कहते हैं।
8. तहलीक –
सिर के बाल मुंडवाना।
9. तक्सीर –
सिर के बाल कटवाना और छोटे कराना।
10. उमराह –
इहराम बांध कर काबा का तवाफ करना और सफा-मरवा के बीच दौड़ना। उमरा हज के दिनों के अलावा भी कर सकते हैं।
हज की किस्में
हज की तीन किस्में है। इफाद, किरान, तमत्तुअ।
1. इफाद -
वह हज जिसमें इहराम बांधते वक्त सिर्फ हज का इरादा किया हो। ऐसा हज करने वाला 'मुफिद' कहलाता है।
2. किरान –
इहराम बांधते वक्त हज और उमरा दोनों की नीयत की हो। ऐसा हज करने वाला 'कारिन' कहलाता है।
3. तमत्तुअ –
हज के दिनों में पहले इहराम बांधकर उमरा कर लिया जाये और फिर कुछ दिनों के लिये इहराम खोल लिया जाए। फिर हज का एहराम बांधकर हज कर लिया जाए। ऐसा हज करने वाला 'मुतमत्तिअ' कहलाता है।

हज का तरीका
हज में तीन बातें फर्ज हैं। अगर वह छूट जाये तो हज न होगा। हज का पूरा तरीका यह है कि पहले तवाफे कदूम करते है। हजरे अस्वद (काला पत्थर) को चूमते है। फिर सफा और मरवा दोनों पहाड़ियों के बीच दौड़ते हैं। 8 जिल्हिज्जा को फज्र की नमाज पढकर मीना चल देते हैं। रात को मीना में रहते हैं। 9 जिल्हिज्जा को गुस्ल करके अरफात के मैदान की तरफ रवाना होते हैं। वहां शाम तक ठहरते हैं। अरफात का मंजर बडा़ ही अजीब होता है। दूर-दूर से आये हुये अल्लाह के मुख्लिस बन्दों का ठाठें मारता हुआ समुन्द्र दूर तक नजर आता है। कोई गोरा, कोई काला, कोई छोटा, कोई बड़ा। मगर सब का एक ही लिबास, सब की जुबानों पर एक ही अल्लाह की बड़ाई। सब एक ही की मुहब्बत में सरमस्त नजर आते हैं। न कोई गरीब, न अमीर, न छोटा, न बड़ा, न कोई राजा है न प्रजा। सब एक ही अल्लाह के बन्दे हैं। सब भाई-भाई हैं। सब एक ही के गुण गाते है। और सबका एक ही पैगाम है। और एक ही पुकार। सब तारीफें अल्लाह ही के लिये हैं, सारी नेमतें उसी की है। उस का कोई साझी नहीं। हम सब उसी के बन्दे हैं। और उसी की पुकार पर उसके दर पर हाजिर हैं।
अरफात में जुहर और अस्त्र की नमाज इकठ्‌ठी पढ़ते हैं। और सूरज डूबने के बाद मुज्दल्फा की तरफ रवाना हो जाते हैं। वहां मगरिब और इशा की नमाज इकठ्‌ठी पढ़ी जाती है। रात में मुज्दल्फा ही में ठहरते हैं।
10 जिल्हिज्जा को फज्र की नमाज पढ़ते ही मीना की तरफ रवाना हो जाते हैं। और दोपहर से पहले-पहले मीना में पहुंच कर जमरा में सात बार कंकरियां फेंकते हैं। रमी (कंकरियां मारने) के बाद तल्बिया कहना बन्द कर देते हैं। फिर कुरबानी करके सिर' के बाल मुंडवाते या कतरवाते हैं। और इहराम उतार कर अपने कपड़े पहन लेते है। मीना में 12 जिल्हिज्जा तक रहते हैं। जिल्हिज्जा की बारहवीं तारीख खत्म होते ही हज खत्म हो जाता है। हज से फारिग होकर प्यारे रसूल (सल्ल.) की पाक बस्ती की जियारत के लिये जाते है। खाना-काबा की जियारत के बाद प्यारे रसूल (सल्ल.) के मजारे-मुकद्दस (पवित्र कब्र) की जियारत करते है। आप (सल्ल.) की मस्जिद में नमाज पढ़ते है। आप (सल्ल.) पर दरूद और सलाम भेजते है। और दीन-दुनिया की दौलतों से दामन भर कर वापिस आते हैं। अल्लाह तआला हम सबको खाना-काबा की जियारत नसीब करे। प्यारे रसूल (सल्ल.) का पाक मजार दिखाये। और हज की दौलतों से माला माल करे। आमीन!

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