Zakat (ज़कात)

Zakat (ज़कात)

जकात

नमाज और रोजों की तरह जकात भी मुसलमानों पर फर्ज है। फर्क सिर्फ यह है कि नमाज और रोजा तो हर गरीब और मालदार मुसलमानों पर फर्ज है और जकात सिर्फ मालदारों पर फर्ज है। नमाज रोजा जिस्मानी इबादतें हैं और जकात माली इबादत है। नमाज-रोजा अल्लाह के हुकूक हैं और जकात में बन्दों का हक भी शामिल है। जकात इस्माल का एक रुक्न (स्तम्भ) है। इसका फर्ज होना कुरआन मजीद की खुली दलीलों से साबित है। जो आदमी इसका इन्कार करे वह मुसलमान ही नहीं, और जो मालदार होते हुए न अदा करे वह बहुत ही गुनाहगार है।
क़ुरआन शरीफ से उन्हीं लोगों को हिदायत मिलती है जो नमाज पढ़ते हैं और जकात देते हैं। जकात की अहमियत इससे ज्यादा और क्या होगी कि जो लोग जकात अदा नहीं करते उन्हें  हिदायत ही नहीं मिल सकती। कुरआन शरीफ में लगभग बयासी (82) जगह जकात की ताकीद की गई है। और बत्तीस (32) जगह तो नमाज जैसी इबादत के साथ इसका जिक्र किया गया है। जकात को मुसलमानों की पहचान बताया गया है। और जकात न अदा करना मुशरिकों और मुनाफिकों की सिफत बताया गया है। जकात अदा करने वालों को जन्नत में हर तरह की नेमतें मिलेंगी। और जकात से जी चुराने वालों को ऐसा दर्दनाक अजाब दिया जायेगा कि उसके सुनने से ही रोंगटे खडे़ हो जाते है। कुरआन शरीफ में है जो लोग सोना-चांदी जमा करते हैं और अल्लाह की राह में खर्च नहीं करते उन्हें एक दर्दनाक अजाब की खुशखबरी सुना दो कि उनका जमा किया हुआ सोना-चांदी उस दिन दोजख की आग में तपाया जायेगा। फिर उन बदकिस्मतों की पेशानियां, कोखें और पीठें दागी जायेंगी। और उनसे कहा जायेगा कि यह वही सोना-चांदी है जो तुमने जमा किया था, अब अपने जमा किये हुए का मजा चखो।  (सूरा तौबा)
यह सजा तो कुरआन शरीफ में है। हदीस में भी बहुत ही सख्त सजायें बयान की गई हैं। प्यारे रसूल (सल्ल.) ने फरमाया -
"जिन लोगों को अल्लाह मियां ने माल दिया और वे उसकी जकात अदा नहीं करते, कयामत के दिन उनका यह माल एक बहुत ही जहरीले और गंजे सांप की शक्ल में सामने आयेगा। वह उनकी गर्दनों में लिपट जायेगा और उनके जबडों में नोच-नोच कर कहेगा, 'मैं तुम्हारा जमा किया हुआ माल हूं।' में तुम्हारा खजाना हूं।"
तौबा-तौबा कैसी सखत सजा है! कौन मुसलमान होगा जो इस सजा को सुनकर भी जकात अदा न करे।
प्यारे रसूल (सल्ल.) के बाद हजरत अबू बकर सिद्दीकी (रजि.) जब खलीफा हुये तो कुछ लोगों ने जकात देने से इन्कार कर दिया। आपने उन से जिहाद करने का एलान कर दिया। हजरत उमर (रजि.) बोले! आप उन से केसे जिहाद कर सकते हो। ये लोग तो 'कलिमा' पढ़ते है। हजरत अबू बकर सिद्दीकी (रजि.) ने फरमाया, 'खुदा की कसम, जो नमाज और जकात में फर्क समझे, मैं उसके खिलाफ जिहाद करूंगा। खुदा की कसम, अगर वह ऊँट की रस्सी भी रोकेंगे तो मैं उनसे जिहाद करूंगा। इस वाकये से मालूम होता है कि जकात कितनी अहम चीज है।
जकात अदा करने में हमारे लिये दीन और दुनिया की भलाई है। जकात देने से हमारा माल पाक (पवित्र) होता है। हमारे दिल से माल की मुहब्बत कम होती है। गरीब भाइयों की मदद होती है। हमदर्दी का जज्बा पैदा होता है। माल ठीक-ठीक तक्सीम हो जाता है। और अमीर-गरीब सब उससे फायदा उठाते हैं। यह नहीं कि कुछ लोग तो कोठियां बनवायें और कुछ लोग दाने-दाने को तरसें। प्यारे सहाबा (रजि.) का तो यह हाल था कि वे जरूरत से ज्यादा एक पैसा भी अपने पास नहीं रखते थे। हजरत अबू जर गिफारी (रजि.) की तो यह आदत थी कि जहां कुछ लोगों को इकठ्‌ठा देखते जकात के बारे में जरूर नसीहत करते।

जकात किसे कहते हैं
सोन-चांदी और कारोबारी सामान बगैरह पर अगर एक साल गुजर जाये तो उनकी कीमत का चालीसवां हिस्सा गरीबों और मुहताजों को देने का नाम जकात है।

जकात फ़र्ज़ होने की शर्तें -
जकात फर्ज होने के लिये छः बातों का पाया जाना जरूरी है -
1.   मुसलमान होना। गैर मुस्लिमों पर जकात नहीं। अगर वे किसी इस्लामी हुकूमत में रहतें हों, तो उन से जकात नहीं ली जायेगी।
2.   आकिल होना। दीवाने और पागल पर जकात नहीं है।
3.   बालिग होना। नाबालिग बच्चों के पास चाहे कितना ही माल हो उस पर जकात नहीं है।
4.   निसाब वाला होना।
5.   पूरे साल का गुजरना। यानी माल-अस्बाब और सोना-चांदी एक साल तक आदमी के पास रहा हो।
6.   बुनियादी जरूरतों से ज्यादा होना। खाना, कपड़ा, रहने का मकान और पेशे के औजार यह सब बुनियादी जरूरतें है।

निसाब
माल-अस्बाब, जानवर और सोना-चांदी की वह तयशुदा मिकदार जिस पर साल भर गुजरने से जकात जरूरी होती है, उसको निसाब कहते है। सोना-चंदी और जानवरों का अलग-अलग निसाब है।

चांदी-सोने का निसाब
अगर अगर किसी के पास साढे बावन तोले चांदी हो और उस पर पूरा साल गुजर जाये। या 7 तोले सोना हो और पूरा साल गुजर जाये तो उसका चालीसवां हिस्सा जकात में देना चाहिये। इस का आसान तरीका यह है कि चांदी या सोने की कीमत लगा ली जाये और ढ़ाई रूपया सैकड़ा के हिसाब से जकात अदा कर दी जाये। सिक्कों और नोटों के निसाब का अन्दाजा भी सोने-चांदी से किया जायेगा। जितनी कीमत में साढ़े बावन तोले चांदी मिलती है अगर किसी के पास उतने के नोट हों और साल गुजर जाये तो जकात वाजिब होगी।
जेवरों पर भी जकात देनी चाहिये। एक बार प्यारे रसूल (सल्स.) के पास दौ औरतें हाथों में कंगन पहने हुये आई। आप (सल्स.) ने पूछा, इनकी जकात भी दी है? बोलीं नहीं, तो आप (सल्स.) ने फरमाया, 'क्या तुम तैयार हो कि इसके बदले तुम्हें आग के कंगन पहनाये जायें? बोलीं नहीं। आप (सल्स.) ने फरमाया, 'तो फिर इसकी जकात दिया करो।'
कारोबार और तिजारत के सामान पर भी जकात देनी चाहिए अगर तिजारत के सामान की कीमत साढ़े 52 तोले चांदी हो और साल भर तक इतनी कीमत का सामान मोजूद रहा हो तो जकात देनी होगी।

जानवरों का निसाब
अगर किसी के पास चालीस भेड़-बकरियाँ हो तो एक भेड़ या बकरी जकात में देनी होगी। और एक सौ बीस तक एक ही बकरी देनी होगी। फिर एक सौ इक्कीस से दो सौ तक दो बकरियां देनी होंगी। दो सौ एक से तीन सौ निन्यान्वे तक तीन भेड़ या बकरियां और चार सौ में चार भेड़ या बकरियां, फिर चार सौ से ज्यादा में हर सैकड़े पर एक बकरी बढ़ती रहेगी, सौ से कम या ज्यादा पर कुछ नहीं।
गाय भैंस जब तीस हों तो एक साल का बच्चा जकात में देना होगा। और जब चालीस हो जाये तो पूरे दो साल का बच्चा देना होगा। फिर 41 से 59 तक कुछ वाजिब न होगा। 60 पूरे होने पर 30 के दो निसाब हो जायेंगे। लिहाजा एक साल के दो बच्चे देने होंगे फिर 60 से ज्यादा पर हर 30 पर एक साल का बच्चा और हर चालीस पर दो साल का बच्चा देना होगा।
ऊँट अगर किसी के पास पांच हों तो एक बकरी। दस हों तो दो बकरियां, पन्द्रह हों तो तीन, बीस हों तो चार और पच्चीस हो जाये ऊँट का एक साला बच्चा जकात में देना होगा।

उश्र
जमीन की पैदावार में जो जकात दी जाती है उसको उश्र कहते है। उश्र के अहकाम (नियम) जकात से जरा अलग है। कुरान शरीफ में भी इसका जिक्र है। 'खुदा की राह में खर्च करो अपनी पाक कमाइयों में से और जमीन से हमने जो पैदावार तुमको दी है उसमें से भी।' और फरमाया, 'जब उनमें फल आ जाये तो खुद भी खाओ और पैदावार का हक (यानी उश्र) भी अदा करो। प्यारे रसूल (सल्स.) ने फरमाया, 'जो कुछ जमीन से उगे उसमें सदका (दान) है।' सहाबा (रजि.) गल्ला, फल, शहद हर चीज का उश्र देते थे। उश्र हर मुसलमान पर फर्ज है। इसमें आकिल (पागल), बालिग की कोई शर्त नहीं। और न ही निसाब' और साल गुजरने की शर्त है।

आधा उश्र
अगर पैदावार बारिश के पानी से बगैर सिंचाई के हुई हो तो कुल पैदावार का दसवाँ हिस्सा देना होगा। और अगर आबपाशी के जरिये सिंचाई की गई हो तो कुल पैदावार का बीसवां हिस्सा देना होगा।

जकात किन लोगों को दी जाये
जिन लोगों को जकात दी जाती है वे आठ किस्म के है -
1. फकीर –
जिसके पास आमदनी का कोई जरिया तो ही लेकिन उससे उसकी जरूरतें पूरी न होती हों, या सैलाब, तुफान और फसाद वगैरह की वजह से अचानक सब कुछ तबाह हो जाये।
2. मिस्कीन –
जिसके पास खाने को ना हो, और न वह कमा सकता हो, बे- सहारा, यतीम और बेवायें भी इसमें शामिल हैं।
3. आमिल –
यानी वे लोग जो जकात वसूल करने के काम पर लगे हुये हों।
4. मुवल्लिफतुल कूलूब –
जिनको इसलाम का शौक दिलाने या इस्लाम पर जमाने के लिये दिया जाये।
5. अर्रिकाब –
गुलाम या जो लोग जंग में गिरफ्तार करके कैदी बना लिये जायें।
6. ग्रारिम –
कर्जदार लोग जो अपना कर्ज अदा न कर सकते हों।
7. फी सबीलिल्लाह –
दीन का बोलबाला करने की जद्दोजहद में और दीन की खिदमत के सिलसिले में।
8. इब्नुस्सबील –
यानी मुसाफिर, मुसाफिर चाहे अपने धर का खाता-पीता हो। अगर सफर में उसे जरूरत पेश आ जाये तो उसको जकात दी जा सकती है।

जकात मुसलमानों के बैतुलमाल (खजाना) में जमा करनी चाहिये। और बैतुल माल से उन आठ किस्म के लोगों पर खर्च होना चाहिए। अगर बैतुलमाल न हो, तो बैतुलमाल काइम करने की कोशिश करनी चाहिये। और जब तक बैतुलमाल न हो खुद ही उन लोगों को दे देना चाहिये। जकात चांद के महीने से देना चाहिये। और देते वक्त यह नियत कर लेनी चाहिए कि यह माल अल्लाह के वास्ते जकात में दे रहा हूं। जिसको जकात दी जा रही है, उसको बताना जरूरी नहीं।

फितरा
फितरा भी एक तरह का दान है जो सिर्फ ईदुल फ़ित्र मतलब ईद से पहले गरीबों को पैसा या अनाज देना होता है. ताकि ईद के दिन कोई भीख ना मांगे। अब सवाल है कि फितरा का मूल्याङ्कन किस प्रकार किया जाए? फितरा के लिए कितने रुपये देने चाहिए।
ऐसे तो फितरा के लिए गेंहू, किशमिश, जौ दे सकते हैं, लेकिन वक्त के साथ अनाज के बदले पैसे देने का चलन आ गया। मतलब एक शख्स को दो किलो गेहूं की कीमत के बराबर पैसे देने होंगे। जैसे गेंहू की कीमत रुपये 20 प्रति किलो है तो, एक शख्स पर 40 रुपये फितरे की रकम होती है। तो अगर किसी परिवार में 5 लोग रहते हैं तो उस परिवार को 200 रुपये फितरे के तौर पर बांटने होंगे।

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