Quran पारा 1

अल-फातिहा

بِسْمِ اللهِ الرَّحْمنِ الرَّحِيمِِ {1}

शुरू करता हूँ ख़ु़दा के नाम से जो बड़ा मेहरबान निहायत रहम वाला है (1) 

अल-फातिहा

الْحَمْدُ للّهِ رَبِّ الْعَالَمِينَ {2}

सब तारीफ ख़ु़दा ही के लिए सज़ावार है (2) 

अल-फातिहा

الرَّحْمـنِ الرَّحِيمِ {3}

और सारे जहाँन का पालने वाला बड़ा मेहरबान रहम वाला है (3) 

अल-फातिहा

مَالِكِ يَوْمِ الدِّينِ {4}

रोज़े जज़ा का मालिक है (4) 

अल-फातिहा

إِيَّاكَ نَعْبُدُ وإِيَّاكَ نَسْتَعِينُ {5}

ख़ु़दाया हम तेरी ही इबादत करते हैं और तुझ ही से मदद चाहते हैं (5) 

अल-फातिहा

اهدِنَــــا الصِّرَاطَ المُستَقِيمَ {6}

तो हमको सीधी राह पर साबित क़दम रख (6) 

अल-फातिहा

صِرَاطَ الَّذِينَ أَنعَمتَ عَلَيهِمْ غَيرِ المَغضُوبِ عَلَيهِمْ وَلاَ الضَّالِّينَ {7}

उनकी राह जिन्हें तूने (अपनी) नेअमत अता की है न उनकी राह जिन पर तेरा ग़ज़ब ढ़ाया गया और न गुमराहों की (7) 

अलिफ़-लाम-मीम

سْمِ اللهِ الرَّحْمنِ الرَّحِيمِ

ख़ु़दा के नाम से शुरू करता हूँ जो बड़ा मेहरबान और रहम वाला है 

अलिफ़-लाम-मीम

الم {1}

अलीफ़ लाम मीम (1)

अलिफ़-लाम-मीम

ذَلِكَ الْكِتَابُ لاَ رَيْبَ فِيهِ هُدًى لِّلْمُتَّقِينَ {2}

(ये) वह किताब है। जिस (के किताबे खु़दा होने) में कुछ भी शक नहीं (ये) परहेज़गारों की रहनुमा है (2)

अलिफ़-लाम-मीम

الَّذِينَ يُؤْمِنُونَ بِالْغَيْبِ وَيُقِيمُونَ الصَّلاةَ وَمِمَّا رَزَقْنَاهُمْ يُنفِقُونَ {3}

जो ग़ैब पर ईमान लाते हैं और (पाबन्दी से) नमाज़ अदा करते हैं और जो कुछ हमने उनको दिया है उसमें से (राहे खु़दा में) ख़र्च करते हैं (3)

अलिफ़-लाम-मीम

والَّذِينَ يُؤْمِنُونَ بِمَا أُنزِلَ إِلَيْكَ وَمَا أُنزِلَ مِن قَبْلِكَ وَبِالآخِرَةِ هُمْ يُوقِنُونَ {4}

और जो कुछ तुम पर (ऐ रसूल) और तुम से पहले नाजि़ल किया गया है उस पर ईमान लाते हैं और वही आखि़रत का यक़ीन भी रखते हैं (4)

अलिफ़-लाम-मीम

أُوْلَـئِكَ عَلَى هُدًى مِّن رَّبِّهِمْ وَأُوْلَـئِكَ هُمُ الْمُفْلِحُونَ {5}

यही लोग अपने परवरदिगार की हिदायत पर (आमिल) हैं और यही लोग अपनी दिली मुरादें पाएँगे (5)

अलिफ़-लाम-मीम

إِنَّ الَّذِينَ كَفَرُواْ سَوَاءٌ عَلَيْهِمْ أَأَنذَرْتَهُمْ أَمْ لَمْ تُنذِرْهُمْ لاَ يُؤْمِنُونَ {6}

बेशक जिन लोगों ने कुफ्र इख़तेयार किया उनके लिए बराबर है (ऐ रसूल) चाहे तुम उन्हें डराओ या न डराओ वह ईमान न लाएँगे (6)

अलिफ़-लाम-मीम

خَتَمَ اللّهُ عَلَى قُلُوبِهمْ وَعَلَى سَمْعِهِمْ وَعَلَى أَبْصَارِهِمْ غِشَاوَةٌ وَلَهُمْ عَذَابٌ عظِيمٌ {7}

उनके दिलों पर और उनके कानों पर (नज़र करके) खु़दा ने तसदीक़ कर दी है (कि ये ईमान न लाएँगे) और उनकी आँखों पर परदा (पड़ा हुआ) है और उन्हीं के लिए (बहुत) बड़ा अज़ाब है (7)

अलिफ़-लाम-मीम

وَمِنَ النَّاسِ مَن يَقُولُ آمَنَّا بِاللّهِ وَبِالْيَوْمِ الآخِرِ وَمَا هُم بِمُؤْمِنِينَ {8}

और बाज़ लोग ऐसे भी हैं जो (ज़बान से तो) कहते हैं कि हम खु़दा पर और क़यामत पर ईमान लाए हालाँकि वह दिल से ईमान नहीं लाए (8)

अलिफ़-लाम-मीम

يُخَادِعُونَ اللّهَ وَالَّذِينَ آمَنُوا وَمَا يَخْدَعُونَ إِلاَّ أَنفُسَهُم وَمَا يَشْعُرُونَ {9}

खु़दा को और उन लोगों को जो ईमान लाए धोखा देते हैं हालाँकि वह अपने आपको धोखा देते हैं और कुछ शऊर नहीं रखते हैं (9)

अलिफ़-लाम-मीम

فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٌ فَزَادَهُمُ اللّهُ مَرَضاً وَلَهُم عَذَابٌ أَلِيمٌ بِمَا كَانُوا يَكْذِبُونَ {10}

उनके दिलों में मर्ज़ (मरज़) था ही अब खु़दा ने उनके मर्ज़ (मरज़) को और बढ़ा दिया और चूँकि वह लोग झूठ बोला करते थे इसलिए उन पर तकलीफ देह अज़ाब है (10)

अलिफ़-लाम-मीम

وَإِذَا قِيلَ لَهُمْ لاَ تُفْسِدُواْ فِي الأَرْضِ قَالُواْ إِنَّمَا نَحْنُ مُصْلِحُونَ {11}

और जब उनसे कहा जाता है कि मुल्क में फसाद न करते फिरो (तो) कहते हैं कि हम तो सिर्फ इसलाह करते हैं (11)

अलिफ़-लाम-मीम

أَلا إِنَّهُمْ هُمُ الْمُفْسِدُونَ وَلَـكِن لاَّ يَشْعُرُونَ {12}

ख़बरदार हो जाओ बेशक यही लोग फसादी हैं लेकिन समझते नहीं (12)

अलिफ़-लाम-मीम

وَإِذَا قِيلَ لَهُمْ آمِنُواْ كَمَا آمَنَ النَّاسُ قَالُواْ أَنُؤْمِنُ كَمَا آمَنَ السُّفَهَاء أَلا إِنَّهُمْ هُمُ السُّفَهَاء وَلَـكِن لاَّ يَعْلَمُونَ {13}

और जब उनसे कहा जाता है कि जिस तरह और लोग ईमान लाए हैं तुम भी ईमान लाओ तो कहते हैं क्या हम भी उसी तरह ईमान लाएँ जिस तरह और बेवकू़फ़ लोग ईमान लाएँ, ख़बरदार हो जाओ लोग बेवक़ूफ़ हैं लेकिन नहीं जानते (13)

अलिफ़-लाम-मीम

وَإِذَا لَقُواْ الَّذِينَ آمَنُواْ قَالُواْ آمَنَّا وَإِذَا خَلَوْاْ إِلَى شَيَاطِينِهِمْ قَالُواْ إِنَّا مَعَكْمْ إِنَّمَا نَحْنُ مُسْتَهْزِئُونَ {14}

और जब उन लोगों से मिलते हैं जो ईमान ला चुके तो कहते हैं हम तो ईमान ला चुके और जब अपने शैतानों के साथ तनहा रह जाते हैं तो कहते हैं हम तुम्हारे साथ हैं हम तो (मुसलमानों को) बनाते हैं (14)

अलिफ़-लाम-मीम

اللّهُ يَسْتَهْزِئُ بِهِمْ وَيَمُدُّهُمْ فِي طُغْيَانِهِمْ يَعْمَهُونَ {15}

(वह क्या बनाएँगे) खु़दा उनको बनाता है और उनको ढील देता है कि वह अपनी सरकशी में ग़लता पेचाँ (उलझे) रहें (15)

अलिफ़-लाम-मीम

أُوْلَـئِكَ الَّذِينَ اشْتَرُوُاْ الضَّلاَلَةَ بِالْهُدَى فَمَا رَبِحَت تِّجَارَتُهُمْ وَمَا كَانُواْ مُهْتَدِينَ {16}

यही वह लोग हैं जिन्होंने हिदायत के बदले गुमराही ख़रीद ली, फिर न उनकी तिजारत ही ने कुछ नफ़ा दिया और न उन लोगों ने हिदायत ही पाई (16)

अलिफ़-लाम-मीम

مَثَلُهُمْ كَمَثَلِ الَّذِي اسْتَوْقَدَ نَاراً فَلَمَّا أَضَاءتْ مَا حَوْلَهُ ذَهَبَ اللّهُ بِنُورِهِمْ وَتَرَكَهُمْ فِي ظُلُمَاتٍ لاَّ يُبْصِرُونَ {17}

उन लोगों की मिसाल (तो) उस शख़्स की सी है जिसने (रात के वक़्त मजमे में) भड़कती हुयी आग रौशन की फिर जब आग (के शोले) ने उनके गिर्दों पेश (चारों ओर) खू़ब उजाला कर दिया तो खु़दा ने उनकी रौशनी ले ली और उनको घटाटोप अँधेरे में छोड़ दिया (17)

अलिफ़-लाम-मीम

صُمٌّ بُكْمٌ عُمْيٌ فَهُمْ لاَ يَرْجِعُونَ {18}

कि अब उन्हें कुछ सुझाई नहीं देता ये लोग बहरे गूँगे अन्धे हैं कि फिर अपनी गुमराही से बाज़ नहीं आ सकते (18)

अलिफ़-लाम-मीम

أَوْ كَصَيِّبٍ مِّنَ السَّمَاء فِيهِ ظُلُمَاتٌ وَرَعْدٌ وَبَرْقٌ يَجْعَلُونَ أَصْابِعَهُمْ فِي آذَانِهِم مِّنَ الصَّوَاعِقِ حَذَرَ الْمَوْتِ واللّهُ مُحِيطٌ بِالْكافِرِينَ {19}

या उनकी मिसाल ऐसी है जैसे आसमानी बारिश जिसमें तारिकियाँ गरज और बिजली की गरज हो मौत के खौफ से कड़क के मारे अपने कानों में ऊँगलियाँ दे लेते हैं हालाँकि खु़दा काफि़रों को (इस तरह) घेरे हुए है (कि उसक हिल नहीं सकते) (19)

अलिफ़-लाम-मीम

يَكَادُ الْبَرْقُ يَخْطَفُ أَبْصَارَهُمْ كُلَّمَا أَضَاء لَهُم مَّشَوْاْ فِيهِ وَإِذَا أَظْلَمَ عَلَيْهِمْ قَامُواْ وَلَوْ شَاء اللّهُ لَذَهَبَ بِسَمْعِهِمْ وَأَبْصَارِهِمْ إِنَّ اللَّه عَلَى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ {20}

क़रीब है कि बिजली उनकी आँखों को चैन्धिया दे जब उनके आगे बिजली चमकी तो उस रौशनी में चल खड़े हुए और जब उन पर अँधेरा छा गया तो (ठिठक के) खड़े हो गए और खु़दा चाहता तो यूँ भी उनके देखने और सुनने की कूवतें छीन लेता बेशक खु़दा हर चीज़ पर क़ादिर है (20)

अलिफ़-लाम-मीम

يَا أَيُّهَا النَّاسُ اعْبُدُواْ رَبَّكُمُ الَّذِي خَلَقَكُمْ وَالَّذِينَ مِن قَبْلِكُمْ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُونَ {21}

ऐ लोगों अपने परवरदिगार की इबादत करो जिसने तुमको और उन लोगों को जो तुम से पहले थे पैदा किया है अजब नहीं तुम परहेज़गार बन जाओ (21)

अलिफ़-लाम-मीम

الَّذِي جَعَلَ لَكُمُ الأَرْضَ فِرَاشاً وَالسَّمَاء بِنَاء وَأَنزَلَ مِنَ السَّمَاء مَاء فَأَخْرَجَ بِهِ مِنَ الثَّمَرَاتِ رِزْقاً لَّكُمْ فَلاَ تَجْعَلُواْ لِلّهِ أَندَاداً وَأَنتُمْ تَعْلَمُونَ {22}

जिसने तुम्हारे लिए ज़मीन का बिछौना और आसमान को छत बनाया और आसमान से पानी बरसाया फिर उसी ने तुम्हारे खाने के लिए बाज़ फल पैदा किए बस किसी को खु़दा का हमसर न बनाओ हालाँकि तुम खू़ब जानते हो (22)

अलिफ़-लाम-मीम

وَإِن كُنتُمْ فِي رَيْبٍ مِّمَّا نَزَّلْنَا عَلَى عَبْدِنَا فَأْتُواْ بِسُورَةٍ مِّن مِّثْلِهِ وَادْعُواْ شُهَدَاءكُم مِّن دُونِ اللّهِ إِنْ كُنْتُمْ صَادِقِينَ {23}

और अगर तुम लोग इस कलाम से जो हमने अपने बन्दे (मोहम्मद) पर नाजि़ल किया है शक में पड़े हो बस अगर तुम सच्चे हो तो तुम (भी) एक सूरा बना लाओ और खु़दा के सिवा जो भी तुम्हारे मददगार हों उनको भी बुला लो (23)

अलिफ़-लाम-मीम

فَإِن لَّمْ تَفْعَلُواْ وَلَن تَفْعَلُواْ فَاتَّقُواْ النَّارَ الَّتِي وَقُودُهَا النَّاسُ وَالْحِجَارَةُ أُعِدَّتْ لِلْكَافِرِينَ {24}

बस अगर तुम ये नहीं कर सकते हो और हरगिज़ नहीं कर सकोगे तो उस आग से डरो जिसके ईधन आदमी और पत्थर होंगे और काफि़रों के लिए तैयार की गई है (24)

अलिफ़-लाम-मीम

وَبَشِّرِ الَّذِين آمَنُواْ وَعَمِلُواْ الصَّالِحَاتِ أَنَّ لَهُمْ جَنَّاتٍ تَجْرِي مِن تَحْتِهَا الأَنْهَارُ كُلَّمَا رُزِقُواْ مِنْهَا مِن ثَمَرَةٍ رِّزْقاً قَالُواْ هَـذَا الَّذِي رُزِقْنَا مِن قَبْلُ وَأُتُواْ بِهِ مُتَشَابِهاً وَلَهُمْ فِيهَا أَزْوَاجٌ مُّطَهَّرَةٌ وَهُمْ فِيهَا خَالِدُونَ {25}

और जो लोग इमान लाए और उन्होंने नेक काम किए उनको (ऐ पैग़म्बर) खुशख़बरी दे दो कि उनके लिए (बेहिश्त के) वह बाग़ात हैं जिनके नीचे नहरे जारी हैं जब उन्हें इन बाग़ात का कोई मेवा खाने को मिलेगा तो कहेंगे ये तो वही (मेवा है जो पहले भी हमें खाने को मिल चुका है) (क्योंकि) उन्हें मिलती जुलती सूरत व रंग के (मेवे) मिला करेंगे और बेहिश्त में उनके लिए साफ सुथरी बीवियाँ होगी और ये लोग उस बाग़ में हमेशा रहेंगे (25)

अलिफ़-लाम-मीम

إِنَّ اللَّهَ لاَ يَسْتَحْيِي أَن يَضْرِبَ مَثَلاً مَّا بَعُوضَةً فَمَا فَوْقَهَا فَأَمَّا الَّذِينَ آمَنُواْ فَيَعْلَمُونَ أَنَّهُ الْحَقُّ مِن رَّبِّهِمْ وَأَمَّا الَّذِينَ كَفَرُواْ فَيَقُولُونَ مَاذَا أَرَادَ اللَّهُ بِهَـذَا مَثَلاً يُضِلُّ بِهِ كَثِيراً وَيَهْدِي بِهِ كَثِيراً وَمَا يُضِلُّ بِهِ إِلاَّ الْفَاسِقِينَ {26}

बेशक खु़दा मच्छर या उससे भी बढ़कर (हक़ीर चीज़) की कोई मिसाल बयान करने में नहीं झेंपता बस जो लोग ईमान ला चुके हैं वह तो यह यक़ीन जानते हैं कि ये (मिसाल) बिल्कुल ठीक है और ये परवरदिगार की तरफ़ से है (अब रहे) वह लोग जो काफि़र है बस वह बोल उठते हैं कि खु़दा का इस मिसाल से क्या मतलब है, ऐसी मिसाल से ख़ुदा बहुतेरों की हिदायत करता है मगर गुमराही में छोड़ता भी है तो ऐसे बदकारों को (26)

अलिफ़-लाम-मीम

الَّذِينَ يَنقُضُونَ عَهْدَ اللَّهِ مِن بَعْدِ مِيثَاقِهِ وَيَقْطَعُونَ مَا أَمَرَ اللَّهُ بِهِ أَن يُوصَلَ وَيُفْسِدُونَ فِي الأَرْضِ أُولَـئِكَ هُمُ الْخَاسِرُونَ {27}

जो लोग खु़दा के एहदो पैमान को मज़बूत हो जाने के बाद तोड़ डालते हैं और जिन (ताल्लुक़ात) का खु़दा ने हुक्म दिया है उनको क़ताआ कर देते हैं और मुल्क में फसाद करते फिरते हैं, यही लोग घाटा उठाने वाले हैं (27)

अलिफ़-लाम-मीम

كَيْفَ تَكْفُرُونَ بِاللَّهِ وَكُنتُمْ أَمْوَاتاً فَأَحْيَاكُمْ ثُمَّ يُمِيتُكُمْ ثُمَّ يُحْيِيكُمْ ثُمَّ إِلَيْهِ تُرْجَعُونَ {28}

(हाँए) क्यों कर तुम खु़दा का इन्कार कर सकते हो हालाँकि तुम (माओं के पेट में) बेजान थे तो उसी ने तुमको ज़िन्दा किया फिर वही तुमको मार डालेगा, फिर वही तुमको (दोबारा क़यामत में) जि़न्दा करेगा फिर उसी की तरफ लौटाए जाओगे (28)

अलिफ़-लाम-मीम

هُوَ الَّذِي خَلَقَ لَكُم مَّا فِي الأَرْضِ جَمِيعاً ثُمَّ اسْتَوَى إِلَى السَّمَاء فَسَوَّاهُنَّ سَبْعَ سَمَاوَاتٍ وَهُوَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيمٌ {29}

वही तो वह (खु़दा) है जिसने तुम्हारे (नफ़े) के ज़मीन की कुल चीज़ों को पैदा किया फिर आसमान (के बनाने) की तरफ़ मुतावज्जेह हुआ तो सात आसमान हमवार (व मुसतहकम) बना दिए और वह (खु़दा) हर चीज़ से (खू़ब) वाकि़फ है (29)

अलिफ़-लाम-मीम

وَإِذْ قَالَ رَبُّكَ لِلْمَلاَئِكَةِ إِنِّي جَاعِلٌ فِي الأَرْضِ خَلِيفَةً قَالُواْ أَتَجْعَلُ فِيهَا مَن يُفْسِدُ فِيهَا وَيَسْفِكُ الدِّمَاء وَنَحْنُ نُسَبِّحُ بِحَمْدِكَ وَنُقَدِّسُ لَكَ قَالَ إِنِّي أَعْلَمُ مَا لاَ تَعْلَمُونَ {30}

और (ऐ रसूल) उस वक़्त को याद करो जब तुम्हारे परवरदिगार ने फ़रिश्तों से कहा कि मैं (अपना) एक नायब ज़मीन में बनानेवाला हूँ (फरिश्ते ताज्जुब से) कहने लगे क्या तू ज़मीन में ऐसे शख़्स को पैदा करेगा जो ज़मीन में फ़साद और खू़ँरेजि़याँ करता फिरे हालाँ तो कि (अगर) ख़लीफा बनाना है (तो हमारा ज़्यादा हक़ है) क्योंकि हम तेरी तारीफ व तसबीह करते हैं और तेरी पाकीज़गी साबित करते हैं तब खु़दा ने फरमाया इसमें तो शक ही नहीं कि जो मैं जानता हूँ तुम नहीं जानते (30)

अलिफ़-लाम-मीम

وَعَلَّمَ آدَمَ الأَسْمَاء كُلَّهَا ثُمَّ عَرَضَهُمْ عَلَى الْمَلاَئِكَةِ فَقَالَ أَنبِئُونِي بِأَسْمَاء هَـؤُلاء إِن كُنتُمْ صَادِقِينَ {31}

और (आदम की हक़ीक़त ज़ाहिर करने की ग़रज़ से) आदम को सब चीज़ों के नाम सिखा दिए फिर उनको फरिश्तों के सामने पेश किया और फ़रमाया कि अगर तुम अपने दावे में कि हम मुस्तहके़ खि़लाफ़त हैं। सच्चे हो तो मुझे इन चीज़ों के नाम बताओ (31)

अलिफ़-लाम-मीम

قَالُواْ سُبْحَانَكَ لاَ عِلْمَ لَنَا إِلاَّ مَا عَلَّمْتَنَا إِنَّكَ أَنتَ الْعَلِيمُ الْحَكِيمُ {32}

तब फ़रिश्तों ने (आजिज़ी से) अजऱ् की तू (हर ऐब से) पाक व पाकीज़ा है हमे तो जो कुछ तूने बताया है उसके सिवा कुछ नहीं जानते तू बड़ा जानने वाला, मसलहक़े का पहचानने वाला है (32)

अलिफ़-लाम-मीम

قَالَ يَا آدَمُ أَنبِئْهُم بِأَسْمَآئِهِمْ فَلَمَّا أَنبَأَهُمْ بِأَسْمَآئِهِمْ قَالَ أَلَمْ أَقُل لَّكُمْ إِنِّي أَعْلَمُ غَيْبَ السَّمَاوَاتِ وَالأَرْضِ وَأَعْلَمُ مَا تُبْدُونَ وَمَا كُنتُمْ تَكْتُمُونَ {33}

(उस वक़्त खु़दा ने आदम को) हुक्म दिया कि ऐ आदम तुम इन फ़रिश्तों को उन सब चीज़ों के नाम बता दो बस जब आदम ने फ़रिश्तों को उन चीज़ों के नाम बता दिए तो खु़दा ने फरिश्तों की तरफ खि़ताब करके फरमाया क्यों, मैं तुमसे न कहता था कि मैं आसमानों और ज़मीनों के छिपे हुए राज़ को जानता हूँ, और जो कुछ तुम अब ज़ाहिर करते हो और जो कुछ तुम छुपाते थे (वह सब) जानता हूँ (33)

अलिफ़-लाम-मीम

وَإِذْ قُلْنَا لِلْمَلاَئِكَةِ اسْجُدُواْ لآدَمَ فَسَجَدُواْ إِلاَّ إِبْلِيسَ أَبَى وَاسْتَكْبَرَ وَكَانَ مِنَ الْكَافِرِينَ {34}

और (उस वक़्त को याद करो) जब हमने फ़रिश्तों से कहा कि आदम को सजदा करो तो सब के सब झुक गए मगर शैतान ने इन्कार किया और ग़ुरूर में आ गया और काफि़र हो गया (34)

अलिफ़-लाम-मीम

وَقُلْنَا يَا آدَمُ اسْكُنْ أَنتَ وَزَوْجُكَ الْجَنَّةَ وَكُلاَ مِنْهَا رَغَداً حَيْثُ شِئْتُمَا وَلاَ تَقْرَبَا هَـذِهِ الشَّجَرَةَ فَتَكُونَا مِنَ الْظَّالِمِينَ {35}

और हमने आदम से कहा ऐ आदम तुम अपनी बीवी समैत बेहिश्त में रहा सहा करो और जहाँ से तुम्हारा जी चाहे उसमें से ब फराग़त खाओ (पियो) मगर उस दरख़्त के पास भी न जाना (वरना) फिर तुम अपना आप नुक़सान करोगे (35)

अलिफ़-लाम-मीम

فَأَزَلَّهُمَا الشَّيْطَانُ عَنْهَا فَأَخْرَجَهُمَا مِمَّا كَانَا فِيهِ وَقُلْنَا اهْبِطُواْ بَعْضُكُمْ لِبَعْضٍ عَدُوٌّ وَلَكُمْ فِي الأَرْضِ مُسْتَقَرٌّ وَمَتَاعٌ إِلَى حِينٍ {36}

तब शैतान ने आदम व हौव्वा को (धोखा देकर) वहाँ से डगमगाया और आखि़र कार उनको जिस (ऐश व राहत) में थे उनसे निकाल फेंका और हमने कहा (ऐ आदम व हौव्वा) तुम (ज़मीन पर) उतर पड़ो तुममें से एक का एक दुशमन होगा और ज़मीन में तुम्हारे लिए एक ख़ास वक़्त (क़यामत) तक ठहराव और ठिकाना है (36)

अलिफ़-लाम-मीम

فَتَلَقَّى آدَمُ مِن رَّبِّهِ كَلِمَاتٍ فَتَابَ عَلَيْهِ إِنَّهُ هُوَ التَّوَّابُ الرَّحِيمُ {37}

फिर आदम ने अपने परवरदिगार से (माज़रत के चन्द अल्फाज़) सीखे बस खु़दा ने उन अल्फाज़ की बरकत से आदम की तौबा कु़बूल कर ली बेशक वह बड़ा माफ़ करने वाला मेहरबान है (37)

अलिफ़-लाम-मीम

قُلْنَا اهْبِطُواْ مِنْهَا جَمِيعاً فَإِمَّا يَأْتِيَنَّكُم مِّنِّي هُدًى فَمَن تَبِعَ هُدَايَ فَلاَ خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلاَ هُمْ يَحْزَنُونَ {38}

(और जब आदम को) ये हुक्म दिया था कि यहाँ से उतर पड़ो (तो भी कह दिया था कि) अगर तुम्हारे पास मेरी तरफ़ से हिदायत आए तो (उसकी पैरवी करना क्योंकि) जो लोग मेरी हिदायत पर चलेंगे उन पर (क़यामत) में न कोई ख़ौफ होगा (38)

अलिफ़-लाम-मीम

وَالَّذِينَ كَفَرواْ وَكَذَّبُواْ بِآيَاتِنَا أُولَـئِكَ أَصْحَابُ النَّارِ هُمْ فِيهَا خَالِدُونَ {39}

और न वह रंजीदा होगे और (ये भी याद रखो) जिन लोगों ने कुफ्र इख़तेयार किया और हमारी आयतों को झुठलाया तो वही जहन्नुमी हैं और हमेशा दोज़ख़ में पड़े रहेगे (39)

अलिफ़-लाम-मीम

يَا بَنِي إِسْرَائِيلَ اذْكُرُواْ نِعْمَتِيَ الَّتِي أَنْعَمْتُ عَلَيْكُمْ وَأَوْفُواْ بِعَهْدِي أُوفِ بِعَهْدِكُمْ وَإِيَّايَ فَارْهَبُونِ {40}

ऐ बनी इसराईल (याक़ूब की औलाद) मेरे उन एहसानात को याद करो जो तुम पर पहले कर चुके हैं और तुम मेरे एहद व इक़रार (ईमान) को पूरा करो तो मैं तुम्हारे एहद (सवाब) को पूरा करूँगा, और मुझ ही से डरते रहो (40)

अलिफ़-लाम-मीम

وَآمِنُواْ بِمَا أَنزَلْتُ مُصَدِّقاً لِّمَا مَعَكُمْ وَلاَ تَكُونُواْ أَوَّلَ كَافِرٍ بِهِ وَلاَ تَشْتَرُواْ بِآيَاتِي ثَمَناً قَلِيلاً وَإِيَّايَ فَاتَّقُونِ {41}

और जो (कु़रान) मैंने नाजि़ल किया वह उस किताब (तौरेत) की (भी) तसदीक़ करता हूँ जो तुम्हारे पास है और तुम सबसे चले उसके इन्कार पर मौजूद न हो जाओ और मेरी आयतों के बदले थोड़ी क़ीमत (दुनयावी फायदा) न लो और मुझ ही से डरते रहो (41)

अलिफ़-लाम-मीम

وَلاَ تَلْبِسُواْ الْحَقَّ بِالْبَاطِلِ وَتَكْتُمُواْ الْحَقَّ وَأَنتُمْ تَعْلَمُونَ {42}

और हक़ को बातिल के साथ न मिलाओ और हक़ बात को न छिपाओ हालाँकि तुम जानते हो और पाबन्दी से नमाज़ अदा करो (42)

अलिफ़-लाम-मीम

وَأَقِيمُواْ الصَّلاَةَ وَآتُواْ الزَّكَاةَ وَارْكَعُواْ مَعَ الرَّاكِعِينَ {43}

और ज़कात दिया करो और जो लोग (हमारे सामने) इबादत के लिए झुकते हैं उनके साथ तुम भी झुका करो (43)

अलिफ़-लाम-मीम

أَتَأْمُرُونَ النَّاسَ بِالْبِرِّ وَتَنسَوْنَ أَنفُسَكُمْ وَأَنتُمْ تَتْلُونَ الْكِتَابَ أَفَلاَ تَعْقِلُونَ {44}

और तुम लोगों से नेकी करने को कहते हो और अपनी ख़बर नहीं लेते हालाँकि तुम किताबे खु़दा को (बराबर) रटा करते हो तो तुम क्या इतना भी नहीं समझते (44)

अलिफ़-लाम-मीम

وَاسْتَعِينُواْ بِالصَّبْرِ وَالصَّلاَةِ وَإِنَّهَا لَكَبِيرَةٌ إِلاَّ عَلَى الْخَاشِعِينَ {45}

और (मुसीबत के वक़्त) सब्र और नमाज़ का सहारा पकड़ो और अलबत्ता नमाज़ दूभर तो है मगर उन ख़ाक़सारों पर (नहीं) जो बख़ूबी जानते हैं (45)

अलिफ़-लाम-मीम

الَّذِينَ يَظُنُّونَ أَنَّهُم مُّلاَقُوا رَبِّهِمْ وَأَنَّهُمْ إِلَيْهِ رَاجِعُونَ {46}

कि वह अपने परवरदिगार की बारगाह में हाजि़र होंगे और ज़रूर उसकी तरफ लौट जाएँगे (46)

अलिफ़-लाम-मीम

يَا بَنِي إِسْرَائِيلَ اذْكُرُواْ نِعْمَتِيَ الَّتِي أَنْعَمْتُ عَلَيْكُمْ وَأَنِّي فَضَّلْتُكُمْ عَلَى الْعَالَمِينَ {47}

ऐ बनी इसराइल मेरी उन नेअमतों को याद करो जो मैंने पहले तुम्हें दी और ये (भी तो सोचो) कि हमने तुमको सारे जहाँन के लोगों से बढ़ा दिया (47)

अलिफ़-लाम-मीम

وَاتَّقُواْ يَوْماً لاَّ تَجْزِي نَفْسٌ عَن نَّفْسٍ شَيْئاً وَلاَ يُقْبَلُ مِنْهَا شَفَاعَةٌ وَلاَ يُؤْخَذُ مِنْهَا عَدْلٌ وَلاَ هُمْ يُنصَرُونَ {48}

और उस दिन से डरो (जिस दिन) कोई शख़्स किसी की तरफ से न फिदिया हो सकेगा और न उसकी तरफ से कोई सिफारिश मानी जाएगी और न उसका कोई मुआवज़ा लिया जाएगा और न वह मदद पहुँचाए जाएँगे (48)

अलिफ़-लाम-मीम

وَإِذْ نَجَّيْنَاكُم مِّنْ آلِ فِرْعَوْنَ يَسُومُونَكُمْ سُوَءَ الْعَذَابِ يُذَبِّحُونَ أَبْنَاءكُمْ وَيَسْتَحْيُونَ نِسَاءكُمْ وَفِي ذَلِكُم بَلاء مِّن رَّبِّكُمْ عَظِيمٌ {49}

और (उस वक़्त को याद करो) जब हमने तुम्हें (तुम्हारे बुजुर्गों को) फिरऔन (के पन्जे) से छुड़ाया जो तुम्हें बड़े-बड़े दुख दे के सताते थे तुम्हारे लड़कों पर छुरी फेरते थे और तुम्हारी औरतों को (अपनी खि़दमत के लिए) जि़न्दा रहने देते थे और उसमें तुम्हारे परवरदिगार की तरफ से (तुम्हारे सब्र की) सख़्त आज़माइश थी (49)

अलिफ़-लाम-मीम

وَإِذْ فَرَقْنَا بِكُمُ الْبَحْرَ فَأَنجَيْنَاكُمْ وَأَغْرَقْنَا آلَ فِرْعَوْنَ وَأَنتُمْ تَنظُرُونَ {50}

और (वह वक़्त भी याद करो) जब हमने तुम्हारे लिए दरया को टुकड़े-टुकड़े किया फिर हमने तुमको छुटकारा दिया (50)

अलिफ़-लाम-मीम

وَإِذْ وَاعَدْنَا مُوسَى أَرْبَعِينَ لَيْلَةً ثُمَّ اتَّخَذْتُمُ الْعِجْلَ مِن بَعْدِهِ وَأَنتُمْ ظَالِمُونَ {51}

और फिरऔन के आदमियों को तुम्हारे देखते-देखते डुबो दिया और (वह वक़्त भी याद करो) जब हमने मूसा से चालीस रातों का वायदा किया था और तुम लोगों ने उनके जाने के बाद एक बछड़े को (परसतिश के लिए खु़दा) बना लिया (51)

अलिफ़-लाम-मीम

ثُمَّ عَفَوْنَا عَنكُمِ مِّن بَعْدِ ذَلِكَ لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُونَ {52}

हालाँकि तुम अपने ऊपर ज़ुल्म जोत रहे थे फिर हमने उसके बाद भी तुम से दरगुज़र की ताकि तुम शुक्र करो (52)

अलिफ़-लाम-मीम

وَإِذْ آتَيْنَا مُوسَى الْكِتَابَ وَالْفُرْقَانَ لَعَلَّكُمْ تَهْتَدُونَ {53}

और (वह वक़्त भी याद करो) जब मूसा को (तौरेत) अता की और हक़ और बातिल को जुदा करनेवाला क़ानून (इनायत किया) ताकि तुम हिदायत पाओ -53

अलिफ़-लाम-मीम

وَإِذْ قَالَ مُوسَى لِقَوْمِهِ يَا قَوْمِ إِنَّكُمْ ظَلَمْتُمْ أَنفُسَكُمْ بِاتِّخَاذِكُمُ الْعِجْلَ فَتُوبُواْ إِلَى بَارِئِكُمْ فَاقْتُلُواْ أَنفُسَكُمْ ذَلِكُمْ خَيْرٌ لَّكُمْ عِندَ بَارِئِكُمْ فَتَابَ عَلَيْكُمْ إِنَّهُ هُوَ التَّوَّابُ الرَّحِيمُ {54}

और (वह वक़्त भी याद करो) जब मूसा ने अपनी क़ौम से कहा कि ऐ मेरी क़ौम तुमने बछड़े को (ख़ुदा) बना के अपने ऊपर बड़ा सख़्त जु़ल्म किया तो अब (इसके सिवा कोई चारा नहीं कि) तुम अपने ख़ालिक की बारगाह में तौबा करो और वह ये है कि अपने को क़त्ल कर डालो तुम्हारे परवरदिगार के नज़दीक तुम्हारे हक़ में यही बेहतर है, फिर जब तुमने ऐसा किया तो खु़दा ने तुम्हारी तौबा क़ुबूल कर ली बेशक वह बड़ा मेहरबान माफ़ करने वाला है (54)

अलिफ़-लाम-मीम

وَإِذْ قُلْتُمْ يَا مُوسَى لَن نُّؤْمِنَ لَكَ حَتَّى نَرَى اللَّهَ جَهْرَةً فَأَخَذَتْكُمُ الصَّاعِقَةُ وَأَنتُمْ تَنظُرُونَ {55}

और (वह वक़्त भी याद करो) जब तुमने मूसा से कहा था कि ऐ मूसा हम तुम पर उस वक़्त तक ईमान न लाएँगे जब तक हम खु़दा को ज़ाहिर बज़ाहिर न देख ले उस पर तुम्हें बिजली ने ले डाला, और तुम तकते ही रह गए (55)

अलिफ़-लाम-मीम

ثُمَّ بَعَثْنَاكُم مِّن بَعْدِ مَوْتِكُمْ لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُونَ {56}

फिर तुम्हें तुम्हारे मरने के बाद हमने जिला उठाया ताकि तुम शुक्र करो (56)

अलिफ़-लाम-मीम

وَظَلَّلْنَا عَلَيْكُمُ الْغَمَامَ وَأَنزَلْنَا عَلَيْكُمُ الْمَنَّ وَالسَّلْوَى كُلُواْ مِن طَيِّبَاتِ مَا رَزَقْنَاكُمْ وَمَا ظَلَمُونَا وَلَـكِن كَانُواْ أَنفُسَهُمْ يَظْلِمُونَ {57}

और हमने तुम पर अब्र का साया किया और तुम पर मन व सलवा उतारा और (ये भी तो कह दिया था कि) जो सुथरी व नफीस रोजि़या तुम्हें दी हैं उन्हें शौक़ से खाओ, और उन लोगों ने हमारा तो कुछ बिगाड़ा नहीं मगर अपनी जानों पर सितम ढाते रहे (57)

अलिफ़-लाम-मीम

وَإِذْ قُلْنَا ادْخُلُواْ هَـذِهِ الْقَرْيَةَ فَكُلُواْ مِنْهَا حَيْثُ شِئْتُمْ رَغَداً وَادْخُلُواْ الْبَابَ سُجَّداً وَقُولُواْ حِطَّةٌ نَّغْفِرْ لَكُمْ خَطَايَاكُمْ وَسَنَزِيدُ الْمُحْسِنِينَ {58}

और (वह वक़्त भी याद करो) जब हमने तुमसे कहा कि इस गाँव (अरीहा) में जाओ और इसमें जहाँ चाहो फराग़त से खाओ (पियो) और दरवाज़े पर सजदा करते हुए और ज़बान से हित्ता बखि़्शश कहते हुए आओ तो हम तुम्हारी ख़ता ये बख़्श देगे और हम नेकी करने वालों की नेकी (सवाब) बढ़ा देगें (58)

अलिफ़-लाम-मीम

فَبَدَّلَ الَّذِينَ ظَلَمُواْ قَوْلاً غَيْرَ الَّذِي قِيلَ لَهُمْ فَأَنزَلْنَا عَلَى الَّذِينَ ظَلَمُواْ رِجْزاً مِّنَ السَّمَاء بِمَا كَانُواْ يَفْسُقُونَ {59}

तो जो बात उनसे कही गई थी उसे शरीरों ने बदलकर दूसरी बात कहनी शुरू कर दी तब हमने उन लोगों पर जिन्होंने शरारत की थी उनकी बदकारी की वजह से आसमानी बला नाजि़ल की (59)

अलिफ़-लाम-मीम

وَإِذِ اسْتَسْقَى مُوسَى لِقَوْمِهِ فَقُلْنَا اضْرِب بِّعَصَاكَ الْحَجَرَ فَانفَجَرَتْ مِنْهُ اثْنَتَا عَشْرَةَ عَيْناً قَدْ عَلِمَ كُلُّ أُنَاسٍ مَّشْرَبَهُمْ كُلُواْ وَاشْرَبُواْ مِن رِّزْقِ اللَّهِ وَلاَ تَعْثَوْاْ فِي الأَرْضِ مُفْسِدِينَ {60}

और (वह वक़्त भी याद करो) जब मूसा ने अपनी क़ौम के लिए पानी माँगा तो हमने कहा (ऐ मूसा) अपनी लाठी पत्थर पर मारो (लाठी मारते ही) उसमें से बारह चश्में फूट निकले और सब लोगों ने अपना-अपना घाट बखूबी जान लिया और हमने आम इजाज़त दे दी कि खु़दा की दी हुयी रोज़ी से खाओ पियो और मुल्क में फसाद न करते फिरो (60)

अलिफ़-लाम-मीम

وَإِذْ قُلْتُمْ يَا مُوسَى لَن نَّصْبِرَ عَلَىَ طَعَامٍ وَاحِدٍ فَادْعُ لَنَا رَبَّكَ يُخْرِجْ لَنَا مِمَّا تُنبِتُ الأَرْضُ مِن بَقْلِهَا وَقِثَّآئِهَا وَفُومِهَا وَعَدَسِهَا وَبَصَلِهَا قَالَ أَتَسْتَبْدِلُونَ الَّذِي هُوَ أَدْنَى بِالَّذِي هُوَ خَيْرٌ اهْبِطُواْ مِصْراً فَإِنَّ لَكُم مَّا سَأَلْتُمْ وَضُرِبَتْ عَلَيْهِمُ الذِّلَّةُ وَالْمَسْكَنَةُ وَبَآؤُوْاْ بِغَضَبٍ مِّنَ اللَّهِ ذَلِكَ بِأَنَّهُمْ كَانُواْ يَكْفُرُونَ بِآيَاتِ اللَّهِ وَيَقْتُلُونَ النَّبِيِّينَ بِغَيْرِ الْحَقِّ ذَلِكَ بِمَا عَصَواْ وَّكَانُواْ يَعْتَدُونَ {61}

(और वह वक़्त भी याद करो) जब तुमने मूसा से कहा कि ऐ मूसा हमसे एक ही खाने पर न रहा जाएगा तो आप हमारे लिए अपने परवरदिगार से दुआ कीजिए कि जो चीज़े ज़मीन से उगती है जैसे साग पात तरकारी और ककड़ी और गेहूँ या (लहसुन) और मसूर और प्याज़ (मन व सलवा) की जगह पैदा करें (मूसा ने) कहा क्या तुम ऐसी चीज़ को जो हर तरह से बेहतर है अदना चीज़ से बदलन चाहते हो तो किसी शहर में उतर पड़ो फिर तुम्हारे लिए जो तुमने माँगा है सब मौजूद है और उन पर ज़िल्लत रूसवाई और मोहताजी की मार पड़ी और उन लोगों ने क़हरे खु़दा की तरफ पलटा खाया, ये सब इस सबब से हुआ कि वह लोग खु़दा की निशानियों से इन्कार करते थे और पैग़म्बरों को नाहक शहीद करते थे, और इस वजह से (भी) कि वह नाफ़रमानी और सरकशी किया करते थे (61)

अलिफ़-लाम-मीम

إِنَّ الَّذِينَ آمَنُواْ وَالَّذِينَ هَادُواْ وَالنَّصَارَى وَالصَّابِئِينَ مَنْ آمَنَ بِاللَّهِ وَالْيَوْمِ الآخِرِ وَعَمِلَ صَالِحاً فَلَهُمْ أَجْرُهُمْ عِندَ رَبِّهِمْ وَلاَ خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلاَ هُمْ يَحْزَنُونَ {62}

बेशक मुसलमानों और यहूदियों और नसरानियों और लामज़हबों में से जो कोई खु़दा और रोज़े आख़ेरत पर ईमान लाए और अच्छे-अच्छे काम करता रहे तो उन्हीं के लिए उनका अज्र व सवाब उनके खु़दा के पास है और न (क़यामत में) उन पर किसी का ख़ौफ होगा न वह रंजीदा दिल होंगे (62)

अलिफ़-लाम-मीम

وَإِذْ أَخَذْنَا مِيثَاقَكُمْ وَرَفَعْنَا فَوْقَكُمُ الطُّورَ خُذُواْ مَا آتَيْنَاكُم بِقُوَّةٍ وَاذْكُرُواْ مَا فِيهِ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُونَ {63}

और (वह वक़्त याद करो) जब हमने (तामीले तौरेत) का तुमसे एक़रार लिया और हमने तुम्हारे सर पर तूर से (पहाड़ को) लाकर लटकाया और कह दिया कि तौरेत जो हमने तुमको दी है उसको मज़बूत पकड़े रहो और जो कुछ उसमें है उसको याद रखो (63)

अलिफ़-लाम-मीम

ثُمَّ تَوَلَّيْتُم مِّن بَعْدِ ذَلِكَ فَلَوْلاَ فَضْلُ اللَّهِ عَلَيْكُمْ وَرَحْمَتُهُ لَكُنتُم مِّنَ الْخَاسِرِينَ {64}

ताकि तुम परहेज़गार बनो फिर उसके बाद तुम (अपने एहदो पैमान से) फिर गए बस अगर तुम पर खु़दा का फज़ल और उसकी मेहरबानी न होती तो तुमने सख़्त घाटा उठाया होता (64)

अलिफ़-लाम-मीम

وَلَقَدْ عَلِمْتُمُ الَّذِينَ اعْتَدَواْ مِنكُمْ فِي السَّبْتِ فَقُلْنَا لَهُمْ كُونُواْ قِرَدَةً خَاسِئِينَ {65}

और अपनी क़ौम से उन लोगों की हालत तो तुम बखू़बी जानते हो जो शम्बे (सनीचर) के दिन अपनी हद से गुज़र गए (कि बावजूद मुमानिअत शिकार खेलने निकले) तो हमने उन से कहा कि तुम राइन्दे गए बन्दर बन जाओ (और वह बन्दर हो गए) (65)

अलिफ़-लाम-मीम

فَجَعَلْنَاهَا نَكَالاً لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهَا وَمَا خَلْفَهَا وَمَوْعِظَةً لِّلْمُتَّقِينَ {66}

बस हमने इस वाक़ये से उन लोगों के वास्ते जिन के सामने हुआ था और जो उसके बाद आनेवाले थे अज़ाब क़रार दिया, और परहेज़गारों के लिए नसीहत (66)

अलिफ़-लाम-मीम

وَإِذْ قَالَ مُوسَى لِقَوْمِهِ إِنَّ اللّهَ يَأْمُرُكُمْ أَنْ تَذْبَحُواْ بَقَرَةً قَالُواْ أَتَتَّخِذُنَا هُزُواً قَالَ أَعُوذُ بِاللّهِ أَنْ أَكُونَ مِنَ الْجَاهِلِينَ {67}

और (वह वक़्त याद करो) जब मूसा ने अपनी क़ौम से कहा कि खु़दा तुम लोगों को ताकीदी हुक्म करता है कि तुम एक गाय जि़बाह करो वह लोग कहने लगे क्या तुम हमसे दिल्लगी करते हो मूसा ने कहा मैं खु़दा से पनाह माँगता हूँ कि मैं जाहिल बनूँ (67)

अलिफ़-लाम-मीम

قَالُواْ ادْعُ لَنَا رَبَّكَ يُبَيِّن لّنَا مَا هِيَ قَالَ إِنَّهُ يَقُولُ إِنَّهَا بَقَرَةٌ لاَّ فَارِضٌ وَلاَ بِكْرٌ عَوَانٌ بَيْنَ ذَلِكَ فَافْعَلُواْ مَا تُؤْمَرونَ {68}

(तब वह लोग कहने लगे कि (अच्छा) तुम अपने खु़दा से दुआ करो कि हमें बता दे कि वह गाय कैसी हो मूसा ने कहा बेशक खु़दा ने फरमाता है कि वह गाय न तो बहुत बूढ़ी हो और न बछिया बल्कि उनमें से औसत दरजे की हो, ग़रज़ जो तुमको हुक्म दिया गया उसको बजा लाओ (68)

अलिफ़-लाम-मीम

قَالُواْ ادْعُ لَنَا رَبَّكَ يُبَيِّن لَّنَا مَا لَوْنُهَا قَالَ إِنَّهُ يَقُولُ إِنّهَا بَقَرَةٌ صَفْرَاء فَاقِـعٌ لَّوْنُهَا تَسُرُّ النَّاظِرِينَ {69}

वह कहने लगे (वाह) तुम अपने खु़दा से दुआ करो कि हमें ये बता दे कि उसका रंग आखि़र क्या हो मूसा ने कहा बेशक खु़दा फरमाता है कि वह गाय खू़ब गहरे ज़र्द रंग की हो देखने वाले उसे देखकर खु़श हो जाए (69)

अलिफ़-लाम-मीम

قَالُواْ ادْعُ لَنَا رَبَّكَ يُبَيِّن لَّنَا مَا هِيَ إِنَّ البَقَرَ تَشَابَهَ عَلَيْنَا وَإِنَّا إِن شَاء اللَّهُ لَمُهْتَدُونَ {70}

तब कहने लगे कि तुम अपने खु़दा से दुआ करो कि हमें ज़रा यह तो बता दे कि वह (गाय) और कैसी हो (वह) गाय तो और गायों में मिल जुल गई और खु़दा ने चाहा तो हम ज़रूर (उसका) पता लगा लेगे (70)

अलिफ़-लाम-मीम

قَالَ إِنَّهُ يَقُولُ إِنَّهَا بَقَرَةٌ لاَّ ذَلُولٌ تُثِيرُ الأَرْضَ وَلاَ تَسْقِي الْحَرْثَ مُسَلَّمَةٌ لاَّ شِيَةَ فِيهَا قَالُواْ الآنَ جِئْتَ بِالْحَقِّ فَذَبَحُوهَا وَمَا كَادُواْ يَفْعَلُونَ {71}

मूसा ने कहा खु़दा ज़रूर फरमाता है कि वह गाय न तो इतनी सधाई हो कि ज़मीन जोते न खेती सीचें भली चंगी एक रंग की कि उसमें कोई धब्बा तक न हो, वह बोले अब (जा के) ठीक-ठीक बयान किया, ग़रज़ उन लोगों ने वह गाय हलाल की हालाँकि उनसे उम्मीद न थी वह कि वह ऐसा करेंगे (71)

अलिफ़-लाम-मीम

وَإِذْ قَتَلْتُمْ نَفْساً فَادَّارَأْتُمْ فِيهَا وَاللّهُ مُخْرِجٌ مَّا كُنتُمْ تَكْتُمُونَ {72}

और जब तुमने एक शख़्स को मार डाला और तुममें उसकी बाबत फूट पड़ गई एक दूसरे को क़ातिल बताने लगा जो तुम छिपाते थे (72)

अलिफ़-लाम-मीम

فَقُلْنَا اضْرِبُوهُ بِبَعْضِهَا كَذَلِكَ يُحْيِي اللّهُ الْمَوْتَى وَيُرِيكُمْ آيَاتِهِ لَعَلَّكُمْ تَعْقِلُونَ {73}

खु़दा को उसका ज़ाहिर करना मंजू़र था बस हमने कहा कि उस गाय को कोई टुकड़ा लेकर इस (की लाश) पर मारो यूँ खु़दा मुर्दे को जि़न्दा करता है और तुम को अपनी कु़दरत की निशानियाँ दिखा देता है (73)

अलिफ़-लाम-मीम

ثُمَّ قَسَتْ قُلُوبُكُم مِّن بَعْدِ ذَلِكَ فَهِيَ كَالْحِجَارَةِ أَوْ أَشَدُّ قَسْوَةً وَإِنَّ مِنَ الْحِجَارَةِ لَمَا يَتَفَجَّرُ مِنْهُ الأَنْهَارُ وَإِنَّ مِنْهَا لَمَا يَشَّقَّقُ فَيَخْرُجُ مِنْهُ الْمَاء وَإِنَّ مِنْهَا لَمَا يَهْبِطُ مِنْ خَشْيَةِ اللّهِ وَمَا اللّهُ بِغَافِلٍ عَمَّا تَعْمَلُونَ {74}

ताकि तुम समझो फिर उसके बाद तुम्हारे दिल सख़्त हो गये बस वह पत्थर के मिस्ल (सख़्त) थे या उससे भी ज़्यादा (सख्त़) क्योंकि पत्थरों में बाज़ तो ऐसे होते हैं कि उनसे नहरें जारी हो जाती हैं और बाज़ ऐसे होते हैं कि उनमें दरार पड़ जाती है और उनमें से पानी निकल पड़ता है और बाज़ पत्थर तो ऐसे होते हैं कि खु़दा के ख़ौफ से गिर पड़ते हैं और जो कुछ तुम कर रहे हो उससे खु़दा ग़ाफिल नहीं है (74)

अलिफ़-लाम-मीम

أَفَتَطْمَعُونَ أَن يُؤْمِنُواْ لَكُمْ وَقَدْ كَانَ فَرِيقٌ مِّنْهُمْ يَسْمَعُونَ كَلاَمَ اللّهِ ثُمَّ يُحَرِّفُونَهُ مِن بَعْدِ مَا عَقَلُوهُ وَهُمْ يَعْلَمُونَ {75}

(मुसलमानों) क्या तुम ये लालच रखते हो कि वह तुम्हारा (सा) ईमान लाएँगें हालाँकि उनमें का एक गिरोह साबिक़ में (पहले) ऐसा था कि खु़दा का कलाम सुनता था और अच्छी तरह समझने के बाद उलट फेर कर देता था हालाँकि वह खू़ब जानते थे और जब उन लोगों से मुलाक़ात करते हैं (75)

अलिफ़-लाम-मीम

وَإِذَا لَقُواْ الَّذِينَ آمَنُواْ قَالُواْ آمَنَّا وَإِذَا خَلاَ بَعْضُهُمْ إِلَىَ بَعْضٍ قَالُواْ أَتُحَدِّثُونَهُم بِمَا فَتَحَ اللّهُ عَلَيْكُمْ لِيُحَآجُّوكُم بِهِ عِندَ رَبِّكُمْ أَفَلاَ تَعْقِلُونَ {76}

जो ईमान लाए तो कह देते हैं कि हम तो ईमान ला चुके और जब उनसे बाज़-बाज़ के साथ तखि़लया (अकेले) में मिलते हैं तो कहते हैं कि जो कुछ खु़दा ने तुम पर (तौरेत) में ज़ाहिर कर दिया है क्या तुम (मुसलमानों को) बता दोगे ताकि उसके सबब से कल तुम्हारे खु़दा के पास तुम पर हुज्जत लाएँ क्या तुम इतना भी नहीं समझते (76)

अलिफ़-लाम-मीम

أَوَلاَ يَعْلَمُونَ أَنَّ اللّهَ يَعْلَمُ مَا يُسِرُّونَ وَمَا يُعْلِنُونَ {77}

लेकिन क्या वह लोग (इतना भी) नहीं जानते कि वह लोग जो कुछ छिपाते हैं या ज़ाहिर करते हैं खु़दा सब कुछ जानता है (77)

अलिफ़-लाम-मीम

وَمِنْهُمْ أُمِّيُّونَ لاَ يَعْلَمُونَ الْكِتَابَ إِلاَّ أَمَانِيَّ وَإِنْ هُمْ إِلاَّ يَظُنُّونَ {78}

और कुछ उनमें से ऐसे अनपढ़ हैं कि वह किताबे खु़दा को अपने मतलब की बातों के सिवा कुछ नहीं समझते और वह फक़त ख़्याली बातें किया करते हैं, (78)

अलिफ़-लाम-मीम

فَوَيْلٌ لِّلَّذِينَ يَكْتُبُونَ الْكِتَابَ بِأَيْدِيهِمْ ثُمَّ يَقُولُونَ هَـذَا مِنْ عِندِ اللّهِ لِيَشْتَرُواْ بِهِ ثَمَناً قَلِيلاً فَوَيْلٌ لَّهُم مِّمَّا كَتَبَتْ أَيْدِيهِمْ وَوَيْلٌ لَّهُمْ مِّمَّا يَكْسِبُونَ {79}

बस वाए हो उन लोगों पर जो अपने हाथ से किताब लिखते हैं फिर (लोगों से कहते फिरते) हैं कि यह खु़दा के यहाँ से (आई) है ताकि उसके ज़रिये से थोड़ी सी क़ीमत (दुनयावी फ़ायदा) हासिल करें बस अफसोस है उन पर कि उनके हाथों ने लिखा और फिर अफसोस है उनपर कि वह ऐसी कमाई करते हैं (79)

अलिफ़-लाम-मीम

وَقَالُواْ لَن تَمَسَّنَا النَّارُ إِلاَّ أَيَّاماً مَّعْدُودَةً قُلْ أَتَّخَذْتُمْ عِندَ اللّهِ عَهْدًا فَلَن يُخْلِفَ اللّهُ عَهْدَهُ أَمْ تَقُولُونَ عَلَى اللّهِ مَا لاَ تَعْلَمُونَ {80}

और कहते हैं कि गिनती के चन्द दिनों के सिवा हमें आग छुएगी भी तो नहीं (ऐ रसूल) इन लोगों से कहो कि क्या तुमने खु़दा से कोई इक़रार ले लिया है कि फिर वह किसी तरह अपने इक़रार के खि़लाफ़ हरगिज़ न करेगा या बे समझे बूझे खु़दा पर बोहतान जोड़ते हो (80)

अलिफ़-लाम-मीम

بَلَى مَن كَسَبَ سَيِّئَةً وَأَحَاطَتْ بِهِ خَطِيـئَتُهُ فَأُوْلَـئِكَ أَصْحَابُ النَّارِ هُمْ فِيهَا خَالِدُونَ {81}

हाँ (सच तो यह है) कि जिसने बुराई हासिल की और उसके गुनाहों ने चारों तरफ से उसे घेर लिया है वही लोग तो दोज़ख़ी हैं और वही (तो) उसमें हमेशा रहेगें (81)

अलिफ़-लाम-मीम

وَالَّذِينَ آمَنُواْ وَعَمِلُواْ الصَّالِحَاتِ أُولَـئِكَ أَصْحَابُ الْجَنَّةِ هُمْ فِيهَا خَالِدُونَ {82}

और जो लोग ईमानदार हैं और उन्होंने अच्छे काम किए हैं वही लोग जन्नती हैं कि हमेशा जन्नत में रहेंगे (82)

अलिफ़-लाम-मीम

وَإِذْ أَخَذْنَا مِيثَاقَ بَنِي إِسْرَائِيلَ لاَ تَعْبُدُونَ إِلاَّ اللّهَ وَبِالْوَالِدَيْنِ إِحْسَاناً وَذِي الْقُرْبَى وَالْيَتَامَى وَالْمَسَاكِينِ وَقُولُواْ لِلنَّاسِ حُسْناً وَأَقِيمُواْ الصَّلاَةَ وَآتُواْ الزَّكَاةَ ثُمَّ تَوَلَّيْتُمْ إِلاَّ قَلِيلاً مِّنكُمْ وَأَنتُم مِّعْرِضُونَ {83}

और (वह वक़्त याद करो) जब हमने बनी ईसराइल से (जो तुम्हारे बुजुर्ग थे) अहद व पैमान लिया था कि खु़दा के सिवा किसी की इबादत न करना और माँ बाप और क़राबतदारों और यतीमों और मोहताजों के साथ अच्छे सुलूक करना और लोगों के साथ अच्छी तरह (नरमी) से बातें करना और बराबर नमाज़ पढ़ना और ज़कात देना फिर तुममें से थोड़े आदमियों के सिवा (सब के सब) फिर गए और तुम लोग हो ही इक़रार से मुँह फेरने वाले (83)

अलिफ़-लाम-मीम

وَإِذْ أَخَذْنَا مِيثَاقَكُمْ لاَ تَسْفِكُونَ دِمَاءكُمْ وَلاَ تُخْرِجُونَ أَنفُسَكُم مِّن دِيَارِكُمْ ثُمَّ أَقْرَرْتُمْ وَأَنتُمْ تَشْهَدُونَ {84}

और (वह वक़्त याद करो) जब हमने तुम (तुम्हारे बुजुर्गों) से अहद लिया था कि आपस में खू़रेजि़याँ न करना और न अपने लोगों को शहर बदर करना तो तुम (तुम्हारे बुजुर्गों) ने इक़रार किया था और तुम भी उसकी गवाही देते हो (84)

अलिफ़-लाम-मीम

ثُمَّ أَنتُمْ هَـؤُلاء تَقْتُلُونَ أَنفُسَكُمْ وَتُخْرِجُونَ فَرِيقاً مِّنكُم مِّن دِيَارِهِمْ تَظَاهَرُونَ عَلَيْهِم بِالإِثْمِ وَالْعُدْوَانِ وَإِن يَأتُوكُمْ أُسَارَى تُفَادُوهُمْ وَهُوَ مُحَرَّمٌ عَلَيْكُمْ إِخْرَاجُهُمْ أَفَتُؤْمِنُونَ بِبَعْضِ الْكِتَابِ وَتَكْفُرُونَ بِبَعْضٍ فَمَا جَزَاء مَن يَفْعَلُ ذَلِكَ مِنكُمْ إِلاَّ خِزْيٌ فِي الْحَيَاةِ الدُّنْيَا وَيَوْمَ الْقِيَامَةِ يُرَدُّونَ إِلَى أَشَدِّ الْعَذَابِ وَمَا اللّهُ بِغَافِلٍ عَمَّا تَعْمَلُونَ {85}

(कि हाँ ऐसा हुआ था) फिर वही लोग तो तुम हो कि आपस में एक दूसरे को क़त्ल करते हो और अपनों से एक जत्थे के नाहक़ और ज़बरदस्ती हिमायती बनकर दूसरे को शहर बदर करते हो (और लुत्फ़ तो ये है कि) अगर वही लोग क़ैदी बनकर तम्हारे पास (मदद माँगने) आए तो उनको तावान देकर छुड़ा लेते हो हालाँकि उनका निकालना ही तुम पर हराम किया गया था तो फिर क्या तुम (किताबे खु़दा की) बाज़ बातों पर ईमान रखते हो और बाज़ से इन्कार करते हो बस तुम में से जो लोग ऐसा करें उनकी सज़ा इसके सिवा और कुछ नहीं कि जि़न्दगी भर की रूसवाई हो और (आखि़रकार) क़यामत के दिन सख़्त अज़ाब की तरफ लौटा दिये जाए और जो कुछ तुम लोग करते हो खु़दा उससे ग़ाफि़ल नहीं है (85)

अलिफ़-लाम-मीम

أُولَـئِكَ الَّذِينَ اشْتَرَوُاْ الْحَيَاةَ الدُّنْيَا بِالآَخِرَةِ فَلاَ يُخَفَّفُ عَنْهُمُ الْعَذَابُ وَلاَ هُمْ يُنصَرُونَ {86}

यही वह लोग हैं जिन्होंने आख़ेरत के बदले दुनिया की जि़न्दगी ख़रीद ली बस न उनके अज़ाब ही में तख़्फ़ीफ़ (कमी) की जाएगी और न वह लोग किसी तरह की मदद दिए जाएँगे (86)

अलिफ़-लाम-मीम

وَلَقَدْ آتَيْنَا مُوسَى الْكِتَابَ وَقَفَّيْنَا مِن بَعْدِهِ بِالرُّسُلِ وَآتَيْنَا عِيسَى ابْنَ مَرْيَمَ الْبَيِّنَاتِ وَأَيَّدْنَاهُ بِرُوحِ الْقُدُسِ أَفَكُلَّمَا جَاءكُمْ رَسُولٌ بِمَا لاَ تَهْوَى أَنفُسُكُمُ اسْتَكْبَرْتُمْ فَفَرِيقاً كَذَّبْتُمْ وَفَرِيقاً تَقْتُلُونَ {87}

और ये हक़ीक़ी बात है कि हमने मूसा को किताब (तौरेत) दी और उनके बाद बहुत से पैग़म्बरों को उनके क़दम ब क़दम ले चलें और मरयम के बेटे ईसा को (भी बहुत से) वाजे़ए व रौशन मौजिजे दिए और पाक रूह जिबरील के ज़रिये से उनकी मदद की क्या तुम उस क़द्र बददिमाग़ हो गए हो कि जब कोई पैग़म्बर तुम्हारे पास तुम्हारी ख़्वाहिशे नफ़सानी के खि़लाफ कोई हुक्म लेकर आया तो तुम अकड़ बैठे फिर तुमने बाज़ पैग़म्बरों को तो झुठलाया और बाज़ को जान से मार डाला (87)

अलिफ़-लाम-मीम

وَقَالُواْ قُلُوبُنَا غُلْفٌ بَل لَّعَنَهُمُ اللَّه بِكُفْرِهِمْ فَقَلِيلاً مَّا يُؤْمِنُونَ {88}

और कहने लगे कि हमारे दिलों पर गि़लाफ चढ़ा हुआ है (ऐसा नहीं) बल्कि उनके कुफ्र की वजह से खु़दा ने उनपर लानत की है बस कम ही लोग ईमान लाते हैं (88)

अलिफ़-लाम-मीम

وَلَمَّا جَاءهُمْ كِتَابٌ مِّنْ عِندِ اللّهِ مُصَدِّقٌ لِّمَا مَعَهُمْ وَكَانُواْ مِن قَبْلُ يَسْتَفْتِحُونَ عَلَى الَّذِينَ كَفَرُواْ فَلَمَّا جَاءهُم مَّا عَرَفُواْ كَفَرُواْ بِهِ فَلَعْنَةُ اللَّه عَلَى الْكَافِرِينَ {89}

और जब उनके पास खु़दा की तरफ़ से किताब (कु़रान) आई और वह उस (किताब तौरेत) की जो उन के पास है तसदीक़ भी करती है। और उससे पहले (इसकी उम्मीद पर) काफि़रों पर फतेहयाब होने की दुआएँ माँगते थे बस जब उनके पास वह चीज़ जिसे पहचानते थे आ गई तो लगे इन्कार करने बस काफि़रों पर खु़दा की लानत है (89)

अलिफ़-लाम-मीम

بِئْسَمَا اشْتَرَوْاْ بِهِ أَنفُسَهُمْ أَن يَكْفُرُواْ بِمَا أنَزَلَ اللّهُ بَغْياً أَن يُنَزِّلُ اللّهُ مِن فَضْلِهِ عَلَى مَن يَشَاء مِنْ عِبَادِهِ فَبَآؤُواْ بِغَضَبٍ عَلَى غَضَبٍ وَلِلْكَافِرِينَ عَذَابٌ مُّهِينٌ {90}

क्या ही बुरा है वह काम जिसके मुक़ाबले में (इतनी बात पर) वह लोग अपनी जानें बेच बैठे हैं कि खु़दा अपने बन्दों से जिस पर चाहे अपनी इनायत से किताब नाजि़ल किया करे इस रश्क से जो कुछ खु़दा ने नाजि़ल किया है सबका इन्कार कर बैठे बस उन पर ग़ज़ब पर ग़ज़ब टूट पड़ा और काफि़रों के लिए (बड़ी) रूसवाई का अज़ाब है (90)

अलिफ़-लाम-मीम

وَإِذَا قِيلَ لَهُمْ آمِنُواْ بِمَا أَنزَلَ اللّهُ قَالُواْ نُؤْمِنُ بِمَا أُنزِلَ عَلَيْنَا وَيَكْفُرونَ بِمَا وَرَاءهُ وَهُوَ الْحَقُّ مُصَدِّقاً لِّمَا مَعَهُمْ قُلْ فَلِمَ تَقْتُلُونَ أَنبِيَاء اللّهِ مِن قَبْلُ إِن كُنتُم مُّؤْمِنِينَ {91}

और जब उनसे कहा गया कि (जो क़ुरान) खु़दा ने नाजि़ल किया है उस पर ईमान लाओ तो कहने लगे कि हम तो उसी किताब (तौरेत) पर ईमान लाए हैं जो हम पर नाजि़ल की गई थी और उस किताब (कु़रान) को जो उसके बाद आई है नहीं मानते हैं हालाँकि वह (क़ुरान) हक़ है और उस किताब (तौरेत) की जो उनके पास है तसदीक़ भी करती है मगर उस किताब कु़रान का जो उसके बाद आई है इन्कार करते हैं (ऐ रसूल) उनसे ये तो पूछो कि तुम (तुम्हारे बुजुर्गों) अगर ईमानदार थे तो फिर क्यों खु़दा के पैग़म्बरों का साबिक़ मे क़त्ल करते थे (91)

अलिफ़-लाम-मीम

وَلَقَدْ جَاءكُم مُّوسَى بِالْبَيِّنَاتِ ثُمَّ اتَّخَذْتُمُ الْعِجْلَ مِن بَعْدِهِ وَأَنتُمْ ظَالِمُونَ {92}

और तुम्हारे पास मूसा तो वाज़ेए व रौशन मौजिज़े लेकर आ ही चुके थे फिर भी तुमने उनके बाद बछड़े को खु़दा बना ही लिया और उससे तुम अपने ही ऊपर ज़ुल्म करने वाले थे (92)

अलिफ़-लाम-मीम

وَإِذْ أَخَذْنَا مِيثَاقَكُمْ وَرَفَعْنَا فَوْقَكُمُ الطُّورَ خُذُواْ مَا آتَيْنَاكُم بِقُوَّةٍ وَاسْمَعُواْ قَالُواْ سَمِعْنَا وَعَصَيْنَا وَأُشْرِبُواْ فِي قُلُوبِهِمُ الْعِجْلَ بِكُفْرِهِمْ قُلْ بِئْسَمَا يَأْمُرُكُمْ بِهِ إِيمَانُكُمْ إِن كُنتُمْ مُّؤْمِنِينَ {93}

और (वह वक़्त याद करो) जब हमने तुमसे अहद लिया और (क़ोहे) तूर को (तुम्हारी उदूले हुक्मी से) तुम्हारे सर पर लटकाया और (हमने कहा कि ये किताब तौरेत) जो हमने दी है मज़बूती से लिए रहो और (जो कुछ उसमें है) सुनो तो कहने लगे सुना तो (सही लेकिन) हम इसको मानते नहीं और उनकी बेईमानी की वजह से (गोया) बछड़े की उलफ़त घोल के उनके दिलों में पिला दी गई (ऐ रसूल) उन लोगों से कह दो कि अगर तुम ईमानदार थे तो तुमको तुम्हारा ईमान क्या ही बुरा हुक्म करता था (93)

अलिफ़-लाम-मीम

قُلْ إِن كَانَتْ لَكُمُ الدَّارُ الآَخِرَةُ عِندَ اللّهِ خَالِصَةً مِّن دُونِ النَّاسِ فَتَمَنَّوُاْ الْمَوْتَ إِن كُنتُمْ صَادِقِينَ {94}

(ऐ रसूल) इन लोगों से कह दो कि अगर खु़दा के नज़दीक आख़ेरत का घर (बेहिश्त) ख़ास तुम्हारे वास्ते है और लोगों के वासते नहीं है बस अगर तुम सच्चे हो तो मौत की आरजू़ करो (94)

अलिफ़-लाम-मीम

وَلَن يَتَمَنَّوْهُ أَبَدًا بِمَا قَدَّمَتْ أَيْدِيهِمْ وَاللّهُ عَلِيمٌ بِالظَّالِمينَ {95}

(ताकि जल्दी बेहिश्त में जाओ) लेकिन वह उन आमाले बद की वजह से जिनको उनके हाथों ने पहले से आगे भेजा है हरगिज़ मौत की आरज़ू न करेंगे और खु़दा ज़ालिमों से खू़ब वाकि़फ है (95)

अलिफ़-लाम-मीम

وَلَتَجِدَنَّهُمْ أَحْرَصَ النَّاسِ عَلَى حَيَاةٍ وَمِنَ الَّذِينَ أَشْرَكُواْ يَوَدُّ أَحَدُهُمْ لَوْ يُعَمَّرُ أَلْفَ سَنَةٍ وَمَا هُوَ بِمُزَحْزِحِهِ مِنَ الْعَذَابِ أَن يُعَمَّرَ وَاللّهُ بَصِيرٌ بِمَا يَعْمَلُونَ {96}

और (ऐ रसूल) तुम उन ही को जि़न्दगी का सबसे ज़्यादा हरीस पाओगे और मुशरिक़ों में से हर एक शख़्स चाहता है कि काश उसको हज़ार बरस की उम्र दी जाती हालाँकि अगर इतनी तूलानी उम्र भी दी जाए तो वह ख़ुदा के अज़ाब से छुटकारा देने वाली नहीं, और जो कुछ वह लोग करते हैं खु़दा उसे देख रहा है (96)

अलिफ़-लाम-मीम

قُلْ مَن كَانَ عَدُوًّا لِّجِبْرِيلَ فَإِنَّهُ نَزَّلَهُ عَلَى قَلْبِكَ بِإِذْنِ اللّهِ مُصَدِّقاً لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهِ وَهُدًى وَبُشْرَى لِلْمُؤْمِنِينَ {97}

(ऐ रसूल उन लोगों से) कह दो कि जो जिबरील का दुशमन है (उसका खु़दा दुशमन है) क्योंकि उस फ़रिश्ते ने खु़दा के हुक्म से (इस कु़रान को) तुम्हारे दिल पर डाला है और वह उन किताबों की भी तसदीक करता है जो (पहले नाजि़ल हो चुकी हैं और सब) उसके सामने मौजूद हैं और ईमानदारों के वास्ते खु़शख़बरी है (97)

अलिफ़-लाम-मीम

مَن كَانَ عَدُوًّا لِّلّهِ وَمَلآئِكَتِهِ وَرُسُلِهِ وَجِبْرِيلَ وَمِيكَالَ فَإِنَّ اللّهَ عَدُوٌّ لِّلْكَافِرِينَ {98}

जो शख़्स ख़ुदा और उसके फरिश्तों और उसके रसूलों और (ख़ासकर) जिबराईल व मीकाइल का दुशमन हो तो बेशक खु़दा भी (ऐसे) काफि़रों का दुश्मन है (98)

अलिफ़-लाम-मीम

وَلَقَدْ أَنزَلْنَا إِلَيْكَ آيَاتٍ بَيِّنَاتٍ وَمَا يَكْفُرُ بِهَا إِلاَّ الْفَاسِقُونَ {99}

और (ऐ रसूल) हमने तुम पर ऐसी निशानियाँ नाजि़ल की हैं जो वाजेए और रौशन हैं और ऐसे नाफरमानों के सिवा उनका कोई इन्कार नहीं कर सकता (99)

अलिफ़-लाम-मीम

أَوَكُلَّمَا عَاهَدُواْ عَهْداً نَّبَذَهُ فَرِيقٌ مِّنْهُم بَلْ أَكْثَرُهُمْ لاَ يُؤْمِنُونَ {100}

और उनकी ये हालत है कि जब कभी कोई अहद किया तो उनमें से एक फरीक़ ने तोड़ डाला बल्कि उनमें से अक्सर तो ईमान ही नहीं रखते (100)

अलिफ़-लाम-मीम

وَلَمَّا جَاءهُمْ رَسُولٌ مِّنْ عِندِ اللّهِ مُصَدِّقٌ لِّمَا مَعَهُمْ نَبَذَ فَرِيقٌ مِّنَ الَّذِينَ أُوتُواْ الْكِتَابَ كِتَابَ اللّهِ وَرَاء ظُهُورِهِمْ كَأَنَّهُمْ لاَ يَعْلَمُونَ {101}

और जब उनके पास खु़दा की तरफ से रसूल (मोहम्मद) आया और उस किताब (तौरेत) की जो उनके पास है तसदीक़ भी करता है तो उन अहले किताब के एक गिरोह ने किताबे खु़दा को अपने बस पुश्त फेंक दिया गोया वह लोग कुछ जानते ही नहीं और उस मंत्र के पीछे पड़ गए (101)

अलिफ़-लाम-मीम

وَاتَّبَعُواْ مَا تَتْلُواْ الشَّيَاطِينُ عَلَى مُلْكِ سُلَيْمَانَ وَمَا كَفَرَ سُلَيْمَانُ وَلَـكِنَّ الشَّيْاطِينَ كَفَرُواْ يُعَلِّمُونَ النَّاسَ السِّحْرَ وَمَا أُنزِلَ عَلَى الْمَلَكَيْنِ بِبَابِلَ هَارُوتَ وَمَارُوتَ وَمَا يُعَلِّمَانِ مِنْ أَحَدٍ حَتَّى يَقُولاَ إِنَّمَا نَحْنُ فِتْنَةٌ فَلاَ تَكْفُرْ فَيَتَعَلَّمُونَ مِنْهُمَا مَا يُفَرِّقُونَ بِهِ بَيْنَ الْمَرْءِ وَزَوْجِهِ وَمَا هُم بِضَآرِّينَ بِهِ مِنْ أَحَدٍ إِلاَّ بِإِذْنِ اللّهِ وَيَتَعَلَّمُونَ مَا يَضُرُّهُمْ وَلاَ يَنفَعُهُمْ وَلَقَدْ عَلِمُواْ لَمَنِ اشْتَرَاهُ مَا لَهُ فِي الآخِرَةِ مِنْ خَلاَقٍ وَلَبِئْسَ مَا شَرَوْاْ بِهِ أَنفُسَهُمْ لَوْ كَانُواْ يَعْلَمُونَ {102}

जिसको सुलेमान के ज़माने की सलतनत में शयातीन जपा करते थे हालाँकि सुलेमान ने कुफ्र नहीं इख़तेयार किया लेकिन शैतानों ने कुफ्र एख़तेयार किया कि वह लोगों को जादू सिखाया करते थे और वह चीज़ें जो हारूत और मारूत दोनों फ़रिश्तों पर बाइबिल में नाजि़ल की गई थी हालाँकि ये दोनों फ़रिश्ते किसी को सिखाते न थे जब तक ये न कह देते थे कि हम दोनों तो फ़क़त (ज़रियाए आज़माइश) है बस तो (इस पर अमल करके) बेइमान न हो जाना इस पर भी उनसे वह (टोटके) सीखते थे जिनकी वजह से मिया बीवी में तफ़रक़ा डालते हालाँकि बग़ैर अज़्ने खु़दा बन्दी वह अपनी इन बातों से किसी को ज़रर नहीं पहुँचा सकते थे और ये लोग ऐसी बातें सीखते थे जो खु़द उन्हें नुक़सान पहुँचाती थी बावजूद कि वह यक़ीनन जान चुके थे कि जो शख़्स इन (बुराईयों) का ख़रीदार हुआ वह आखि़रत में बेनसीब हैं और बेशुबह (मुआवज़ा) बहुत ही बड़ा है जिसके बदले उन्होंने अपनी जानों को बेचा काश (इसे कुछ) सोचे समझे होते (102)

अलिफ़-लाम-मीम

وَلَوْ أَنَّهُمْ آمَنُواْ واتَّقَوْا لَمَثُوبَةٌ مِّنْ عِندِ اللَّه خَيْرٌ لَّوْ كَانُواْ يَعْلَمُونَ {103}

और अगर वह ईमान लाते और जादू वग़ैरह से बचकर परहेज़गार बनते तो खु़दा की दरगाह से जो सवाब मिलता वह उससे कहीं बेहतर होता काश ये लोग (इतना तो) समझते (103)

अलिफ़-लाम-मीम

يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُواْ لاَ تَقُولُواْ رَاعِنَا وَقُولُواْ انظُرْنَا وَاسْمَعُوا ْوَلِلكَافِرِينَ عَذَابٌ أَلِيمٌ {104}

ऐ ईमानवालों तुम (रसूल को अपनी तरफ मुतावज्जे करना चाहो तो) रआना (हमारी रिआयत कर) न कहा करो बल्कि उनज़ुरना (हम पर नज़रे तवज्जो रख) कहा करो और (जी लगाकर) सुनते रहो और काफिरों के लिए दर्दनाक अज़ाब है (104)

अलिफ़-लाम-मीम

مَّا يَوَدُّ الَّذِينَ كَفَرُواْ مِنْ أَهْلِ الْكِتَابِ وَلاَ الْمُشْرِكِينَ أَن يُنَزَّلَ عَلَيْكُم مِّنْ خَيْرٍ مِّن رَّبِّكُمْ وَاللّهُ يَخْتَصُّ بِرَحْمَتِهِ مَن يَشَاء وَاللّهُ ذُو الْفَضْلِ الْعَظِيمِ {105}

ऐ रसूल अहले किताब में से जिन लोगों ने कुफ्र इख़तेयार किया वह और मुशरेकीन ये नहीं चाहते हैं कि तुम पर तुम्हारे परवरदिगार की तरफ से भलाई (वही) नाजि़ल की जाए और (उनका तो इसमें कुछ इजारा नहीं) खु़दा जिसको चाहता है अपनी रहमत के लिए ख़ास कर लेता है और खु़दा बड़ा फज़ल (करने) वाला है (105)

अलिफ़-लाम-मीम

مَا نَنسَخْ مِنْ آيَةٍ أَوْ نُنسِهَا نَأْتِ بِخَيْرٍ مِّنْهَا أَوْ مِثْلِهَا أَلَمْ تَعْلَمْ أَنَّ اللّهَ عَلَىَ كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ {106}

(ऐ रसूल) हम जब कोई आयत मन्सूख़ करते हैं या तुम्हारे ज़ेहन से मिटा देते हैं तो उससे बेहतर या वैसी ही (और) नाजि़ल भी कर देते हैं क्या तुम नहीं जानते कि बेशुबहा खु़दा हर चीज़ पर क़ादिर है (106)

अलिफ़-लाम-मीम

أَلَمْ تَعْلَمْ أَنَّ اللّهَ لَهُ مُلْكُ السَّمَاوَاتِ وَالأَرْضِ وَمَا لَكُم مِّن دُونِ اللّهِ مِن وَلِيٍّ وَلاَ نَصِيرٍ {107}

क्या तुम नहीं जानते कि आसमान की सलतनत बेशुबहा ख़ास खु़दा ही के लिए है और खु़दा के सिवा तुम्हारा न कोई सरपरस्त है न मददगार (107)

अलिफ़-लाम-मीम

أَمْ تُرِيدُونَ أَن تَسْأَلُواْ رَسُولَكُمْ كَمَا سُئِلَ مُوسَى مِن قَبْلُ وَمَن يَتَبَدَّلِ الْكُفْرَ بِالإِيمَانِ فَقَدْ ضَلَّ سَوَاء السَّبِيلِ {108}

(मुसलमानों) क्या तुम चाहते हो कि तुम भी अपने रसूल से वैसै ही (बेढ़ंगे) सवालात करो जिस तरह साबिक़ (पहले) ज़माने में मूसा से (बेतुके) सवालात किए गए थे और जिस शख़्स ने इमान के बदले कुफ्र एख़तेयार किया वह तो यक़ीनी सीधे रास्ते से भटक गया (108)

अलिफ़-लाम-मीम

وَدَّ كَثِيرٌ مِّنْ أَهْلِ الْكِتَابِ لَوْ يَرُدُّونَكُم مِّن بَعْدِ إِيمَانِكُمْ كُفَّاراً حَسَدًا مِّنْ عِندِ أَنفُسِهِم مِّن بَعْدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُمُ الْحَقُّ فَاعْفُواْ وَاصْفَحُواْ حَتَّى يَأْتِيَ اللّهُ بِأَمْرِهِ إِنَّ اللّهَ عَلَى كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ {109}

(मुसलमानों) अहले किताब में से अक्सर लोग अपने दिली हसद की वजह से ये ख़्वाहिश रखते हैं कि तुमको ईमान लाने के बाद फिर काफि़र बना दें (और लुत्फ तो ये है कि) उन पर हक़ ज़ाहिर हो चुका है उसके बाद भी (ये तमन्ना बाक़ी है) बस तुम माफ करो और दरगुज़र करो यहाँ तक कि खु़दा अपना (कोई और) हुक्म भेजे बेशक खु़दा हर चीज़ पर क़ादिर है (109)

अलिफ़-लाम-मीम

وَأَقِيمُواْ الصَّلاَةَ وَآتُواْ الزَّكَاةَ وَمَا تُقَدِّمُواْ لأَنفُسِكُم مِّنْ خَيْرٍ تَجِدُوهُ عِندَ اللّهِ إِنَّ اللّهَ بِمَا تَعْمَلُونَ بَصِيرٌ {110}

और नमाज़ पढ़ते रहो और ज़कात दिये जाओ और जो कुछ भलाई अपने लिए (खु़दा के यहाँ) पहले से भेज दोगे उस (के सवाब) को मौजूद पाआगे जो कुछ तुम करते हो उसे खु़दा ज़रूर देख रहा है (110)

अलिफ़-लाम-मीम

وَقَالُواْ لَن يَدْخُلَ الْجَنَّةَ إِلاَّ مَن كَانَ هُوداً أَوْ نَصَارَى تِلْكَ أَمَانِيُّهُمْ قُلْ هَاتُواْ بُرْهَانَكُمْ إِن كُنتُمْ صَادِقِينَ {111}

और (यहूद) कहते हैं कि यहूद (के सिवा) और (नसारा कहते हैं कि) नसारा के सिवा कोई बेहिश्त में जाने ही न पाएगा ये उनके ख़्याली पुलाव है (ऐ रसूल) तुम उन से कहो कि भला अगर तुम सच्चे हो कि हम ही बेहिश्त में जाएँगे तो अपनी दलील पेश करो (111)

अलिफ़-लाम-मीम

بَلَى مَنْ أَسْلَمَ وَجْهَهُ لِلّهِ وَهُوَ مُحْسِنٌ فَلَهُ أَجْرُهُ عِندَ رَبِّهِ وَلاَ خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلاَ هُمْ يَحْزَنُونَ {112}

हाँ अलबत्ता जिस शख़्स ने खु़दा के आगे अपना सर झुका दिया और अच्छे काम भी करता है तो उसके लिए उसके परवरदिगार के यहाँ उसका बदला (मौजूद) है और (आख़ेरत में) ऐसे लोगों पर न किसी तरह का ख़ौफ़ होगा और न ऐसे लोग ग़मग़ीन होगे (112)

अलिफ़-लाम-मीम

وَقَالَتِ الْيَهُودُ لَيْسَتِ النَّصَارَى عَلَىَ شَيْءٍ وَقَالَتِ النَّصَارَى لَيْسَتِ الْيَهُودُ عَلَى شَيْءٍ وَهُمْ يَتْلُونَ الْكِتَابَ كَذَلِكَ قَالَ الَّذِينَ لاَ يَعْلَمُونَ مِثْلَ قَوْلِهِمْ فَاللّهُ يَحْكُمُ بَيْنَهُمْ يَوْمَ الْقِيَامَةِ فِيمَا كَانُواْ فِيهِ يَخْتَلِفُونَ {113}

और यहूद कहते हैं कि नसारा का मज़हब कुछ (ठीक) नहीं और नसारा कहते हैं कि यहूद का मज़हब कुछ (ठीक) नहीं हालाँकि ये दोनों फरीक़ किताबे (खु़दा) पढ़ते रहते हैं इसी तरह उन्हीं जैसी बातें वह (मुशरेकीन अरब) भी किया करते हैं जो (खु़दा के एहकाम) कुछ नहीं जानते तो जिस बात में ये लोग पड़े झगड़ते हैं (दुनिया में तो तय न होगा) क़यामत के दिन खु़दा उनके दरमियान ठीक फैसला कर देगा (113)

अलिफ़-लाम-मीम

وَمَنْ أَظْلَمُ مِمَّن مَّنَعَ مَسَاجِدَ اللّهِ أَن يُذْكَرَ فِيهَا اسْمُهُ وَسَعَى فِي خَرَابِهَا أُوْلَـئِكَ مَا كَانَ لَهُمْ أَن يَدْخُلُوهَا إِلاَّ خَآئِفِينَ لهُمْ فِي الدُّنْيَا خِزْيٌ وَلَهُمْ فِي الآخِرَةِ عَذَابٌ عَظِيمٌ {114}

और उससे बढ़कर ज़ालिम कौन होगा जो खु़दा की मसजिदों में उसका नाम लिए जाने से (लोगों को) रोके और उनकी बरबादी के दर पे हो, ऐसों ही को उसमें जाना मुनासिब नहीं मगर सहमे हुए ऐसे ही लोगों के लिए दुनिया में रूसवाई है और ऐसे ही लोगों के लिए आख़ेरत में बड़ा भारी अज़ाब है (114)

अलिफ़-लाम-मीम

وَلِلّهِ الْمَشْرِقُ وَالْمَغْرِبُ فَأَيْنَمَا تُوَلُّواْ فَثَمَّ وَجْهُ اللّهِ إِنَّ اللّهَ وَاسِعٌ عَلِيمٌ {115}

(तुम्हारे मसजिद में रोकने से क्या होता है क्योंकि सारी ज़मीन) खु़दा ही की है (क्या) पूरब (क्या) पच्छिम बस जहाँ कहीं कि़ब्ले की तरफ रूख़ करो वही खु़दा का सामना है बेशक खु़दा बड़ी गुन्जाइश वाला और खू़ब वाकि़फ है (115)

अलिफ़-लाम-मीम

وَقَالُواْ اتَّخَذَ اللّهُ وَلَدًا سُبْحَانَهُ بَل لَّهُ مَا فِي السَّمَاوَاتِ وَالأَرْضِ كُلٌّ لَّهُ قَانِتُونَ {116}

और यहूद कहने लगे कि खु़दा औलाद रखता है हालाँकि वह (इस बखेड़े से) पाक है बल्कि जो कुछ ज़मीन व आसमान में है सब उसी का है और सब उसी के फ़रमाबरदार हैं (116)

अलिफ़-लाम-मीम

بَدِيعُ السَّمَاوَاتِ وَالأَرْضِ وَإِذَا قَضَى أَمْراً فَإِنَّمَا يَقُولُ لَهُ كُن فَيَكُونُ {117}

(वही) आसमान व ज़मीन का मोजिद है और जब किसी काम का करना ठान लेता है तो उसकी निसबत सिर्फ कह देता है कि “हो जा” बस वह (खु़द ब खु़द) हो जाता है (117)

अलिफ़-लाम-मीम

وَقَالَ الَّذِينَ لاَ يَعْلَمُونَ لَوْلاَ يُكَلِّمُنَا اللّهُ أَوْ تَأْتِينَا آيَةٌ كَذَلِكَ قَالَ الَّذِينَ مِن قَبْلِهِم مِّثْلَ قَوْلِهِمْ تَشَابَهَتْ قُلُوبُهُمْ قَدْ بَيَّنَّا الآيَاتِ لِقَوْمٍ يُوقِنُونَ {118}

और जो (मुशरेकीन) कुछ नहीं जानते कहते हैं कि खु़दा हमसे (खु़द) कलाम क्यों नहीं करता, या हमारे पास (खु़द) कोई निशानी क्यों नहीं आती, इसी तरह उन्हीं की सी बाते वह कर चुके हैं जो उनसे पहले थे इन सब के दिल आपस में मिलते जुलते हैं जो लोग यक़ीन रखते हैं उनको तो अपनी निशानियाँ क्यों साफतौर पर दिखा चुके (118)

अलिफ़-लाम-मीम

إِنَّا أَرْسَلْنَاكَ بِالْحَقِّ بَشِيرًا وَنَذِيرًا وَلاَ تُسْأَلُ عَنْ أَصْحَابِ الْجَحِيمِ {119}

(ऐ रसूल) हमने तुमको दीने हक़ के साथ (बेहिश्त की) खु़शख़बरी देने वाला और (अज़ाब से) डराने वाला बनाकर भेजा है और दोज़खि़यों के बारे में तुमसे कुछ न पूछा जाएगा (119)

अलिफ़-लाम-मीम

وَلَن تَرْضَى عَنكَ الْيَهُودُ وَلاَ النَّصَارَى حَتَّى تَتَّبِعَ مِلَّتَهُمْ قُلْ إِنَّ هُدَى اللّهِ هُوَ الْهُدَى وَلَئِنِ اتَّبَعْتَ أَهْوَاءهُم بَعْدَ الَّذِي جَاءكَ مِنَ الْعِلْمِ مَا لَكَ مِنَ اللّهِ مِن وَلِيٍّ وَلاَ نَصِيرٍ {120}

और (ऐ रसूल) न तो यहूदी कभी तुमसे रज़ामंद होगे न नसारा यहाँ तक कि तुम उनके मज़हब की पैरवी करो (ऐ रसूल उनसे) कह दो कि बस खु़दा ही की हिदायत तो हिदायत है (बाक़ी ढकोसला है) और अगर तुम इसके बाद भी कि तुम्हारे पास इल्म (क़ुरान) आ चुका है उनकी ख़्वाहिशों पर चले तो (याद रहे कि फिर) तुमको खु़दा (के ग़ज़ब) से बचाने वाला न कोई सरपरस्त होगा न मददगार (120)

अलिफ़-लाम-मीम

الَّذِينَ آتَيْنَاهُمُ الْكِتَابَ يَتْلُونَهُ حَقَّ تِلاَوَتِهِ أُوْلَـئِكَ يُؤْمِنُونَ بِهِ وَمن يَكْفُرْ بِهِ فَأُوْلَـئِكَ هُمُ الْخَاسِرُونَ {121}

जिन लोगों को हमने किताब (कु़रान) दी है वह लोग उसे इस तरह पढ़ते रहते हैं जो उसके पढ़ने का हक़ है यही लोग उस पर ईमान लाते हैं और जो उससे इनकार करते हैं वही लोग घाटे में हैं (121)

अलिफ़-लाम-मीम

يَا بَنِي إِسْرَائِيلَ اذْكُرُواْ نِعْمَتِيَ الَّتِي أَنْعَمْتُ عَلَيْكُمْ وَأَنِّي فَضَّلْتُكُمْ عَلَى الْعَالَمِينَ {122}

बनी इसराईल मेरी उन नेअमतों को याद करो जो मैंनं तुम को दी हैं और ये कि मैंने तुमको सारे जहाँन पर फज़ीलत दी (122)

अलिफ़-लाम-मीम

وَاتَّقُواْ يَوْماً لاَّ تَجْزِي نَفْسٌ عَن نَّفْسٍ شَيْئاً وَلاَ يُقْبَلُ مِنْهَا عَدْلٌ وَلاَ تَنفَعُهَا شَفَاعَةٌ وَلاَ هُمْ يُنصَرُونَ {123}

और उस दिन से डरो जिस दिन कोई शख़्स किसी की तरफ से न फिदया हो सकेगा और न उसकी तरफ से कोई मुआवेज़ा क़ुबूल किया जाएगा और न कोई सिफारिश ही फायदा पहुचाँ सकेगी, और न लोग मदद दिए जाएँगे (123)

अलिफ़-लाम-मीम

وَإِذِ ابْتَلَى إِبْرَاهِيمَ رَبُّهُ بِكَلِمَاتٍ فَأَتَمَّهُنَّ قَالَ إِنِّي جَاعِلُكَ لِلنَّاسِ إِمَامًا قَالَ وَمِن ذُرِّيَّتِي قَالَ لاَ يَنَالُ عَهْدِي الظَّالِمِينَ {124}

(ऐ रसूल) बनी इसराईल को वह वक़्त भी याद दिलाओ जब इबराहीम को उनके परवरदिगार ने चन्द बातों में आज़माया और उन्होंने पूरा कर दिया तो खु़दा ने फरमाया मैं तुमको (लोगों का) पेशवा बनाने वाला हूँ (हज़रत इबराहीम ने) अजऱ् की और मेरी औलाद में से फरमाया (हाँ मगर) मेरे इस ओहदे पर ज़ालिमों में से कोई शख़्स फ़ायज़ नहीं हो सकता (124)

अलिफ़-लाम-मीम

وَإِذْ جَعَلْنَا الْبَيْتَ مَثَابَةً لِّلنَّاسِ وَأَمْناً وَاتَّخِذُواْ مِن مَّقَامِ إِبْرَاهِيمَ مُصَلًّى وَعَهِدْنَا إِلَى إِبْرَاهِيمَ وَإِسْمَاعِيلَ أَن طَهِّرَا بَيْتِيَ لِلطَّائِفِينَ وَالْعَاكِفِينَ وَالرُّكَّعِ السُّجُودِ {125}

(ऐ रसूल वह वक़्त भी याद दिलाओ) जब हमने ख़ानए काबा को लोगों के सवाब और पनाह की जगह क़रार दी और हुक्म दिया गया कि इबराहीम की (इस) जगह को नमाज़ की जगह बनाओ और इबराहीम व इसमाइल से अहद व पैमान लिया कि मेरे (इस) घर को तवाफ़ और एतक़ाफ़ और रूकू और सजदा करने वालों के वास्ते साफ सुथरा रखो (125)

अलिफ़-लाम-मीम

وَإِذْ قَالَ إِبْرَاهِيمُ رَبِّ اجْعَلْ هَـَذَا بَلَدًا آمِنًا وَارْزُقْ أَهْلَهُ مِنَ الثَّمَرَاتِ مَنْ آمَنَ مِنْهُم بِاللّهِ وَالْيَوْمِ الآخِرِ قَالَ وَمَن كَفَرَ فَأُمَتِّعُهُ قَلِيلاً ثُمَّ أَضْطَرُّهُ إِلَى عَذَابِ النَّارِ وَبِئْسَ الْمَصِيرُ {126}

और (ऐ रसूल वह वक़्त भी याद दिलाओ) जब इबराहीम ने दुआ माँगी कि ऐ मेरे परवरदिगार इस (शहर) को पनाह व अमन का शहर बना, और उसके रहने वालों में से जो खु़दा और रोज़े आखि़रत पर ईमान लाए उसको तरह-तरह के फल खाने को दें खु़दा ने फरमाया (अच्छा मगर) जो कुफ्र इख़तेयार करेगा उसकी दुनिया में चन्द रोज़ (उन चीज़ो से) फायदा उठाने दूँगा फिर (आख़ेरत में) उसको मजबूर करके दोज़ख़ की तरफ खींच ले जाऊँगा और वह बहुत बुरा ठिकाना है (126)

अलिफ़-लाम-मीम

وَإِذْ يَرْفَعُ إِبْرَاهِيمُ الْقَوَاعِدَ مِنَ الْبَيْتِ وَإِسْمَاعِيلُ رَبَّنَا تَقَبَّلْ مِنَّا إِنَّكَ أَنتَ السَّمِيعُ الْعَلِيمُ {127}

और (वह वक़्त याद दिलाओ) जब इबराहीम व इसमाईल ख़ानाए काबा की बुनियादें बुलन्द कर रहे थे (और दुआ) माँगते जाते थे कि ऐ हमारे परवरदिगार हमारी (यह खि़दमत) कु़बूल कर बेशक तू ही (दूआ का) सुनने वाला (और उसका) जानने वाला है (127)

अलिफ़-लाम-मीम

رَبَّنَا وَاجْعَلْنَا مُسْلِمَيْنِ لَكَ وَمِن ذُرِّيَّتِنَا أُمَّةً مُّسْلِمَةً لَّكَ وَأَرِنَا مَنَاسِكَنَا وَتُبْ عَلَيْنَا إِنَّكَ أَنتَ التَّوَّابُ الرَّحِيمُ {128}

(और) ऐ हमारे पालने वाले तू हमें अपना फरमाबरदार बन्दा बना और हमारी औलाद से एक गिरोह (पैदा कर) जो तेरा फरमाबरदार हो, और हमको हमारे हज की जगहों दिखा दे और हमारी तौबा क़ुबूल कर, बेशक तू ही बड़ा तौबा कु़बूल करने वाला मेहरबान है (128)

अलिफ़-लाम-मीम

رَبَّنَا وَابْعَثْ فِيهِمْ رَسُولاً مِّنْهُمْ يَتْلُو عَلَيْهِمْ آيَاتِكَ وَيُعَلِّمُهُمُ الْكِتَابَ وَالْحِكْمَةَ وَيُزَكِّيهِمْ إِنَّكَ أَنتَ العَزِيزُ الحَكِيمُ {129}

(और) ऐ हमारे पालने वाले मक्के वालों में उन्हीं में से एक रसूल को भेज जो उनको तेरी आयतें पढ़कर सुनाए और आसमानी किताब और अक़्ल की बातें सिखाए और उन (के नुफ़ूस) के पाकीज़ा कर दें बेशक तू ही ग़ालिब और साहिबे तदबीर है (129)

अलिफ़-लाम-मीम

وَمَن يَرْغَبُ عَن مِّلَّةِ إِبْرَاهِيمَ إِلاَّ مَن سَفِهَ نَفْسَهُ وَلَقَدِ اصْطَفَيْنَاهُ فِي الدُّنْيَا وَإِنَّهُ فِي الآخِرَةِ لَمِنَ الصَّالِحِينَ {130}

और कौन है जो इबराहीम के तरीक़े से नफरत करे मगर जो अपने को अहमक़ बनाए और बेशक हमने उनको दुनिया में भी मुन्तखब कर लिया और वह ज़रूर आख़ेरत में भी अच्छों ही में से होगे (130)

अलिफ़-लाम-मीम

إِذْ قَالَ لَهُ رَبُّهُ أَسْلِمْ قَالَ أَسْلَمْتُ لِرَبِّ الْعَالَمِينَ {131}

जब उनसे उनके परवरदिगार ने कहा इस्लाम कु़बूल करो तो अजऱ् में की सारे जहाँ के परवरदिगार पर इस्लाम लाया (131)

अलिफ़-लाम-मीम

وَوَصَّى بِهَا إِبْرَاهِيمُ بَنِيهِ وَيَعْقُوبُ يَا بَنِيَّ إِنَّ اللّهَ اصْطَفَى لَكُمُ الدِّينَ فَلاَ تَمُوتُنَّ إَلاَّ وَأَنتُم مُّسْلِمُونَ {132}

और इसी तरीके़ की इबराहीम ने अपनी औलाद से वसीयत की और याकू़ब ने (भी) कि ऐ फरज़न्दों खु़दा ने तुम्हारे वास्ते इस दीन (इस्लाम) को पसन्द फरमाया है बस तुम हरगिज़ न मरना मगर मुसलमान ही होकर (132)

अलिफ़-लाम-मीम

أَمْ كُنتُمْ شُهَدَاء إِذْ حَضَرَ يَعْقُوبَ الْمَوْتُ إِذْ قَالَ لِبَنِيهِ مَا تَعْبُدُونَ مِن بَعْدِي قَالُواْ نَعْبُدُ إِلَـهَكَ وَإِلَـهَ آبَائِكَ إِبْرَاهِيمَ وَإِسْمَاعِيلَ وَإِسْحَاقَ إِلَـهًا وَاحِدًا وَنَحْنُ لَهُ مُسْلِمُونَ {133}

(ऐ यहूद) क्या तुम उस वक़्त मौजूद थे जब याकू़ब के सर पर मौत आ खड़ी हुई उस वक़्त उन्होंने अपने बेटों से कहा कि मेरे बाद किसी की इबादत करोगे कहने लगे हम आप के माबूद और आप के बाप दादाओं इबराहीम व इस्माइल व इसहाक़ के माबूद व यकता खु़दा की इबादत करेंगे और हम उसके फरमाबरदार हैं (133)

अलिफ़-लाम-मीम

تِلْكَ أُمَّةٌ قَدْ خَلَتْ لَهَا مَا كَسَبَتْ وَلَكُم مَّا كَسَبْتُمْ وَلاَ تُسْأَلُونَ عَمَّا كَانُوا يَعْمَلُونَ {134}

(ऐ यहूद) वह लोग थे जो चल बसे जो उन्होंने कमाया उनके आगे आया और जो तुम कमाओगे तुम्हारे आगे आएगा और जो कुछ भी वह करते थे उसकी पूछगछ तुमसे नहीं होगी (134)

अलिफ़-लाम-मीम

وَقَالُواْ كُونُواْ هُودًا أَوْ نَصَارَى تَهْتَدُواْ قُلْ بَلْ مِلَّةَ إِبْرَاهِيمَ حَنِيفًا وَمَا كَانَ مِنَ الْمُشْرِكِينَ {135}

(यहूदी ईसाई मुसलमानों से) कहते हैं कि यहूद या नसारानी हो जाओ तो राहे रास्त पर आ जाओगे (ऐ रसूल उनसे) कह दो कि हम इबराहीम के तरीक़े पर हैं जो बातिल से कतरा कर चलते थे और मुशरेकीन से न थे (135)

अलिफ़-लाम-मीम

قُولُواْ آمَنَّا بِاللّهِ وَمَا أُنزِلَ إِلَيْنَا وَمَا أُنزِلَ إِلَى إِبْرَاهِيمَ وَإِسْمَاعِيلَ وَإِسْحَاقَ وَيَعْقُوبَ وَالأسْبَاطِ وَمَا أُوتِيَ مُوسَى وَعِيسَى وَمَا أُوتِيَ النَّبِيُّونَ مِن رَّبِّهِمْ لاَ نُفَرِّقُ بَيْنَ أَحَدٍ مِّنْهُمْ وَنَحْنُ لَهُ مُسْلِمُونَ {136}

(और ऐ मुसलमानों तुम ये) कहो कि हम तो खु़दा पर ईमान लाए हैं और उस पर जो हम पर नाजि़ल किया गया (कु़रान) और जो सहीफ़े इबराहीम व इसमाइल व इसहाक़ व याकू़ब और औलादे याकू़ब पर नाजि़ल हुए थे (उन पर) और जो किताब मूसा व ईसा को दी गई (उस पर) और जो और पैग़म्बरों को उनके परवरदिगार की तरफ से उन्हें दिया गया (उस पर) हम तो उनमें से किसी (एक) में भी तफरीक़ नहीं करते और हम तो खु़दा ही के फरमाबरदार हैं (136)

अलिफ़-लाम-मीम

فَإِنْ آمَنُواْ بِمِثْلِ مَا آمَنتُم بِهِ فَقَدِ اهْتَدَواْ وَّإِن تَوَلَّوْاْ فَإِنَّمَا هُمْ فِي شِقَاقٍ فَسَيَكْفِيكَهُمُ اللّهُ وَهُوَ السَّمِيعُ الْعَلِيمُ {137}

बस अगर ये लोग भी उसी तरह ईमान लाए हैं जिस तरह तुम तो अलबत्ता राहे रास्त पर आ गए और अगर वह इस तरीके़ से मुँह फेर लें तो बस वह सिर्फ तुम्हारी ही जि़द पर है तो (ऐ रसूल) उन (के शर) से (बचाने को) तुम्हारे लिए खु़दा काफ़ी होगा और वह (सबकी हालत) खू़ब जानता (और) सुनता है (137)

अलिफ़-लाम-मीम

صِبْغَةَ اللّهِ وَمَنْ أَحْسَنُ مِنَ اللّهِ صِبْغَةً وَنَحْنُ لَهُ عَابِدونَ {138}

(मुसलमानों से कहो कि) रंग तो खु़दा ही का रंग है जिसमें तुम रंगे गए और खुदाई रंग से बेहतर कौन रंग होगा और हम तो उसी की इबादत करते हैं (138)

अलिफ़-लाम-मीम

قُلْ أَتُحَآجُّونَنَا فِي اللّهِ وَهُوَ رَبُّنَا وَرَبُّكُمْ وَلَنَا أَعْمَالُنَا وَلَكُمْ أَعْمَالُكُمْ وَنَحْنُ لَهُ مُخْلِصُونَ {139}

(ऐ रसूल) तुम उनसे पूछो कि क्या तुम हम से खु़दा के बारे झगड़ते हो हालाँकि वही हमारा (भी) परवरदिगार है (वही) तुम्हारा भी (परवरदिगार है) हमारे लिए है हमारी कारगुज़ारियाँ और तुम्हारे लिए तुम्हारी कारसतानियाँ और हम तो निरेखरे उसी के हैं (139)

अलिफ़-लाम-मीम

أَمْ تَقُولُونَ إِنَّ إِبْرَاهِيمَ وَإِسْمَاعِيلَ وَإِسْحَاقَ وَيَعْقُوبَ وَالأسْبَاطَ كَانُواْ هُودًا أَوْ نَصَارَى قُلْ أَأَنتُمْ أَعْلَمُ أَمِ اللّهُ وَمَنْ أَظْلَمُ مِمَّن كَتَمَ شَهَادَةً عِندَهُ مِنَ اللّهِ وَمَا اللّهُ بِغَافِلٍ عَمَّا تَعْمَلُونَ {140}

क्या तुम कहते हो कि इबराहीम व इसमाइल व इसहाक़ व आलौदें याकू़ब सब के सब यहूदी या नसारानी थे (ऐ रसूल उनसे) पूछो तो कि तुम ज़्यादा वाकि़फ़ हो या खु़दा और उससे बढ़कर कौन ज़ालिम होगा जिसके पास खु़दा की तरफ से गवाही (मौजूद) हो (कि वह यहूदी न थे) और फिर वह छिपाए और जो कुछ तुम करते हो खु़दा उससे बेख़बर नहीं (140)

अलिफ़-लाम-मीम

تِلْكَ أُمَّةٌ قَدْ خَلَتْ لَهَا مَا كَسَبَتْ وَلَكُم مَّا كَسَبْتُمْ وَلاَ تُسْأَلُونَ عَمَّا كَانُواْ يَعْمَلُونَ {141}

ये वह लोग थे जो सिधार चुके जो कुछ कमा गए उनके लिए था और जो कुछ तुम कमाओगे तुम्हारे लिए होगा और जो कुछ वह कर गुज़रे उसकी पूछगछ तुमसे न होगी (141)