Quran पारा 5

वल्मुहसनात

وَالْمُحْصَنَاتُ مِنَ النِّسَاء إِلاَّ مَا مَلَكَتْ أَيْمَانُكُمْ كِتَابَ اللّهِ عَلَيْكُمْ وَأُحِلَّ لَكُم مَّا وَرَاء ذَلِكُمْ أَن تَبْتَغُواْ بِأَمْوَالِكُم مُّحْصِنِينَ غَيْرَ مُسَافِحِينَ فَمَا اسْتَمْتَعْتُم بِهِ مِنْهُنَّ فَآتُوهُنَّ أُجُورَهُنَّ فَرِيضَةً وَلاَ جُنَاحَ عَلَيْكُمْ فِيمَا تَرَاضَيْتُم بِهِ مِن بَعْدِ الْفَرِيضَةِ إِنَّ اللّهَ كَانَ عَلِيمًا حَكِيمًا {24}

और शौहरदार औरतें मगर वह औरतें जो (जिहाद में कुफ़्फ़ार से) तुम्हारे कब्ज़े में आ जाएं हराम नहीं (ये) ख़ुदा का तहरीरी हुक्म (है जो) तुमपर (फ़र्ज़ किया गया) है और उन औरतों के सिवा (और औरतें) तुम्हारे लिए जायज़ हैं बशर्ते कि बदकारी व जि़ना नहीं बल्कि तुम इफ़्फ़त व पाकदामिनी की ग़रज़ से अपने माल (व मेहर) के बदले (निकाह करना) चाहो हाँ जिन औरतों से तुमने मुताअ किया हो तो उन्हें जो मेहर मुअय्यन किया है दे दो और मेहर के मुक़र्रर होने के बाद अगर आपस में (कमों पर) राज़ी हो जाओ तो उसमें तुमपर कुछ गुनाह नहीं है बेशक ख़ुदा (हर चीज़ से) वाकि़फ़ और मसलेहतों का पहचानने वाला है (24) 

वल्मुहसनात

وَمَن لَّمْ يَسْتَطِعْ مِنكُمْ طَوْلاً أَن يَنكِحَ الْمُحْصَنَاتِ الْمُؤْمِنَاتِ فَمِن مِّا مَلَكَتْ أَيْمَانُكُم مِّن فَتَيَاتِكُمُ الْمُؤْمِنَاتِ وَاللّهُ أَعْلَمُ بِإِيمَانِكُمْ بَعْضُكُم مِّن بَعْضٍ فَانكِحُوهُنَّ بِإِذْنِ أَهْلِهِنَّ وَآتُوهُنَّ أُجُورَهُنَّ بِالْمَعْرُوفِ مُحْصَنَاتٍ غَيْرَ مُسَافِحَاتٍ وَلاَ مُتَّخِذَاتِ أَخْدَانٍ فَإِذَا أُحْصِنَّ فَإِنْ أَتَيْنَ بِفَاحِشَةٍ فَعَلَيْهِنَّ نِصْفُ مَا عَلَى الْمُحْصَنَاتِ مِنَ الْعَذَابِ ذَلِكَ لِمَنْ خَشِيَ الْعَنَتَ مِنْكُمْ وَأَن تَصْبِرُواْ خَيْرٌ لَّكُمْ وَاللّهُ غَفُورٌ رَّحِيمٌ {25}

और तुममें से जो शख़्स आज़ाद इफ़्फ़तदार औरतों से निकाह करने की माली हैसियत से क़ुदरत न रखता हो तो वह तुम्हारी उन मोमिना लौन्डियों से जो तुम्हारे कब्ज़े में हैं निकाह कर सकता है और ख़ुदा तुम्हारे ईमान से ख़ूब वाकि़फ़ है (ईमान की हैसियत से तो) तुममें एक दूसरे का हमजिन्स है बस (बे ताम्मुल) उनके मालिकों की इजाज़त से लौन्डियों से निकाह करो और उनका मेहर हुस्ने सुलूक से दे दो मगर उन्हीं (लौन्डियो) से निकाह करो जो इफ़्फ़त के साथ तुम्हारी पाबन्द रहें न तो खुले आम जि़ना करना चाहें और न चोरी छिपे से आशनाई फिर जब तुम्हारी पाबन्द हो चुकी उसके बाद कोई बदकारी करे तो जो सज़ा आज़ाद बीवियों को दी जाती है उसकी आधी (सज़ा) लौन्डियों को दी जाएगी (और लौन्डियों) से निकाह कर भी सकता है तो वह शख़्स जिसको जि़ना में मुब्तिला हो जाने का ख़ौफ़ हो और सब्र करे तो तुम्हारे हक़ में ज़्यादा बेहतर है और ख़ुदा बख़्शने वाला मेहरबान है (25) 

वल्मुहसनात

يُرِيدُ اللّهُ لِيُبَيِّنَ لَكُمْ وَيَهْدِيَكُمْ سُنَنَ الَّذِينَ مِن قَبْلِكُمْ وَيَتُوبَ عَلَيْكُمْ وَاللّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ {26}

ख़ुदा तो ये चाहता है कि (अपने) एहकाम तुम लोगों से साफ़ साफ़ बयान कर दे और जो (अच्छे) लोग तुमसे पहले गुज़र चुके हैं उनके तरीक़े पर चला दे और तुम्हारी तौबा कु़बूल करे और ख़ुदा तो (हर चीज़ से) वाकि़फ़ और हिकमत वाला है (26) 

वल्मुहसनात

وَاللّهُ يُرِيدُ أَن يَتُوبَ عَلَيْكُمْ وَيُرِيدُ الَّذِينَ يَتَّبِعُونَ الشَّهَوَاتِ أَن تَمِيلُواْ مَيْلاً عَظِيمًا {27}

और ख़़ुदा तो चाहता है कि तुम्हारी तौबा क़ुबूल (27) 

वल्मुहसनात

يُرِيدُ اللّهُ أَن يُخَفِّفَ عَنكُمْ وَخُلِقَ الإِنسَانُ ضَعِيفًا {28}

करे और जो लोग नफ़सियानी ख़्वाहिश के पीछे पड़े हैं वह ये चाहते हैं कि तुम लोग (राहे हक़ से) बहुत दूर हट जाओ और ख़ुदा चाहता है कि तुमसे बार में तख़फ़ीफ़ कर दें क्योंकि आदमी तो बहुत कमज़ोर पैदा किया गया है (28) 

वल्मुहसनात

يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُواْ لاَ تَأْكُلُواْ أَمْوَالَكُمْ بَيْنَكُمْ بِالْبَاطِلِ إِلاَّ أَن تَكُونَ تِجَارَةً عَن تَرَاضٍ مِّنكُمْ وَلاَ تَقْتُلُواْ أَنفُسَكُمْ إِنَّ اللّهَ كَانَ بِكُمْ رَحِيمًا {29}

ए ईमानवालों आपस में एक दूसरे का माल नाहक़ न खा जाया करो लेकिन (हाँ) तुम लोगों की बाहमी रज़ामन्दी से तिजारत हो (और उसमें एक दूसरे का माल हो तो मुज़ाएक़ा नहीं) और अपना गला आप घूट के अपनी जान न दो (क्योंकि) ख़ुदा तो ज़रूर तुम्हारे हाल पर मेहरबान है (29) 

वल्मुहसनात

وَمَن يَفْعَلْ ذَلِكَ عُدْوَانًا وَظُلْمًا فَسَوْفَ نُصْلِيهِ نَارًا وَكَانَ ذَلِكَ عَلَى اللّهِ يَسِيرًا {30}

और जो शख़्स जोरो ज़ुल्म से नाहक़ ऐसा करेगा (ख़ुदकुशी करेगा) तो (याद रहे कि) हम बहुत जल्द उसको जहन्नुम की आग में झोंक देंगे यह ख़ुदा के लिये आसान है (30) 

वल्मुहसनात

إِن تَجْتَنِبُواْ كَبَآئِرَ مَا تُنْهَوْنَ عَنْهُ نُكَفِّرْ عَنكُمْ سَيِّئَاتِكُمْ وَنُدْخِلْكُم مُّدْخَلاً كَرِيمًا {31}

जिन कामों की तुम्हें मनाही की जाती है अगर उनमें से तुम गुनाहे कबीरा से बचते रहे तो हम तुम्हारे (सग़ीरा) गुनाहों से भी दरगुज़र करेगें और तुमको बहुत अच्छी इज़्ज़त की जगह पहुँचा देंगे (31) 

वल्मुहसनात

وَلاَ تَتَمَنَّوْاْ مَا فَضَّلَ اللّهُ بِهِ بَعْضَكُمْ عَلَى بَعْضٍ لِّلرِّجَالِ نَصِيبٌ مِّمَّا اكْتَسَبُواْ وَلِلنِّسَاء نَصِيبٌ مِّمَّا اكْتَسَبْنَ وَاسْأَلُواْ اللّهَ مِن فَضْلِهِ إِنَّ اللّهَ كَانَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيمًا {32}

और ख़ुदा ने जो तुममें से एक दूसरे पर तरजीह दी है उसकी हवस न करो (क्योंकि फ़ज़ीलत तो आमाल से है) मर्दो को अपने किए का हिस्सा है और औरतों को अपने किए का हिस्सा और ये और बात है कि तुम ख़ुदा से उसके फज़ल व करम की ख़्वाहिश करो ख़ुदा तो हर चीज़े से वाकि़फ़ है (32) 

वल्मुहसनात

وَلِكُلٍّ جَعَلْنَا مَوَالِيَ مِمَّا تَرَكَ الْوَالِدَانِ وَالأَقْرَبُونَ وَالَّذِينَ عَقَدَتْ أَيْمَانُكُمْ فَآتُوهُمْ نَصِيبَهُمْ إِنَّ اللّهَ كَانَ عَلَى كُلِّ شَيْءٍ شَهِيدًا {33}

और माँ बाप (या) और क़राबतदार (ग़रज़) तो शख़्स जो तरका छोड़ जाए हमने हर एक का (वाली) वारिस मुक़र्रर कर दिया है और जिन लोगों से तुमने मुस्तहकम {पक्का} एहद किया है उनका मुक़र्रर हिस्सा भी तुम दे दो बेशक ख़ुदा तो हर चीज़ पर गवाह है (33) 

वल्मुहसनात

الرِّجَالُ قَوَّامُونَ عَلَى النِّسَاء بِمَا فَضَّلَ اللّهُ بَعْضَهُمْ عَلَى بَعْضٍ وَبِمَا أَنفَقُواْ مِنْ أَمْوَالِهِمْ فَالصَّالِحَاتُ قَانِتَاتٌ حَافِظَاتٌ لِّلْغَيْبِ بِمَا حَفِظَ اللّهُ وَاللاَّتِي تَخَافُونَ نُشُوزَهُنَّ فَعِظُوهُنَّ وَاهْجُرُوهُنَّ فِي الْمَضَاجِعِ وَاضْرِبُوهُنَّ فَإِنْ أَطَعْنَكُمْ فَلاَ تَبْغُواْ عَلَيْهِنَّ سَبِيلاً إِنَّ اللّهَ كَانَ عَلِيًّا كَبِيرًا {34}

मर्दो का औरतों पर क़ाबू है क्योंकि (एक तो) ख़ुदा ने बाज़ आदमियों (मर्द) को बाज़ आदमियों (औरत) पर फ़ज़ीलत दी है औेर (इसके अलावा) चूकी मर्दो ने औरतों पर अपना माल ख़र्च किया है बस नेक बख़्त बीवियाँ तो शौहरों की ताबेदारी करती हैं (और) उनके पीठ पीछे जिस तरह ख़ुदा ने हिफ़ाज़त की वह भी (हर चीज़ की) हिफ़ाज़त करती है और वह औरतें जिनके नाफरमान सरकश होने का तुम्हें अन्देशा हो तो पहले उन्हें समझाओ और (उसपर न माने तो) तुम उनके साथ सोना छोड़ दो और (इससे भी न माने तो) मारो मगर इतना कि खू़न न निकले और कोई अज़ो न (टूटे) बस अगर वह तुम्हारी मुतीइ हो जाए तो तुम भी उनके नुक़सान की राह न ढूढो ख़ुदा तो ज़रूर सबसे बरतर बुजु़र्ग है (34) 

वल्मुहसनात

وَإِنْ خِفْتُمْ شِقَاقَ بَيْنِهِمَا فَابْعَثُواْ حَكَمًا مِّنْ أَهْلِهِ وَحَكَمًا مِّنْ أَهْلِهَا إِن يُرِيدَا إِصْلاَحًا يُوَفِّقِ اللّهُ بَيْنَهُمَا إِنَّ اللّهَ كَانَ عَلِيمًا خَبِيرًا {35}

और ऐ हुक्काम (वक़्त) अगर तुम्हें मियाँ बीवी की पूरी नाइत्तेफ़ाक़ी का तरफै़न से अन्देशा हो तो एक सालिस (पन्च) मर्द के कुनबे में से एक और सालिस औरत के कुनबे में मुक़र्रर करो अगर ये दोनों सालिस दोनों में मेल करा देना चाहें तो ख़ुदा उन दोनों के दरमियान उसका अच्छा बन्दोबस्त कर देगा ख़ुदा तो बेशक वाकि़फ व ख़बरदार है (35) 

वल्मुहसनात

وَاعْبُدُواْ اللّهَ وَلاَ تُشْرِكُواْ بِهِ شَيْئًا وَبِالْوَالِدَيْنِ إِحْسَانًا وَبِذِي الْقُرْبَى وَالْيَتَامَى وَالْمَسَاكِينِ وَالْجَارِ ذِي الْقُرْبَى وَالْجَارِ الْجُنُبِ وَالصَّاحِبِ بِالجَنبِ وَابْنِ السَّبِيلِ وَمَا مَلَكَتْ أَيْمَانُكُمْ إِنَّ اللّهَ لاَ يُحِبُّ مَن كَانَ مُخْتَالاً فَخُورًا {36}

और ख़ुदा ही की इबादत करो और किसी को उसका शरीक न बनाओ और माँ बाप और क़राबतदारों और यतीमों और मोहताजों और रिश्तेदारों पड़ोसियों और अजनबी पड़ोसियों और पहलू में बैठने वाले मुसाहिबों और पड़ोसियों और ज़र ख़रीद लौन्डी और गुलाम के साथ एहसान करो बेशक ख़ुदा अकड़ के चलने वालों और शेख़ीबाज़ों को दोस्त नहीं रखता (36) 

वल्मुहसनात

الَّذِينَ يَبْخَلُونَ وَيَأْمُرُونَ النَّاسَ بِالْبُخْلِ وَيَكْتُمُونَ مَا آتَاهُمُ اللّهُ مِن فَضْلِهِ وَأَعْتَدْنَا لِلْكَافِرِينَ عَذَابًا مُّهِينًا {37}

ये वह लोग हैं जो ख़ुद तो बुख़्ल करते ही हैं और लोगों को भी बुख़्ल का हुक्म देते हैं और जो माल ख़ुदा ने अपने फ़ज़ल व (करम) से उन्हें दिया है उसे छिपाते हैं और हमने तो कुफ़राने नेअमत करने वालों के वास्ते सख़्त जि़ल्लत का अज़ाब तैयार कर रखा है (37) 

वल्मुहसनात

وَالَّذِينَ يُنفِقُونَ أَمْوَالَهُمْ رِئَـاء النَّاسِ وَلاَ يُؤْمِنُونَ بِاللّهِ وَلاَ بِالْيَوْمِ الآخِرِ وَمَن يَكُنِ الشَّيْطَانُ لَهُ قَرِينًا فَسَاء قِرِينًا {38}

और जो लोग महज़ लोगों को दिखाने के वास्ते अपने माल ख़र्च करते हैं और न खुदा ही पर ईमान रखते हैं और न रोजे़ आख़ेरत पर ख़ुदा भी उनके साथ नहीं क्योंकि उनका साथी तो शैतान है और जिसका साथी शैतान हो तो क्या ही बुरा साथी है (38) 

वल्मुहसनात

وَمَاذَا عَلَيْهِمْ لَوْ آمَنُواْ بِاللّهِ وَالْيَوْمِ الآخِرِ وَأَنفَقُواْ مِمَّا رَزَقَهُمُ اللّهُ وَكَانَ اللّهُ بِهِم عَلِيمًا {39}

अगर ये लोग ख़ुदा और रोज़े आखि़रत पर ईमान लाते और जो कुछ ख़ुदा ने उन्हें दिया है उसमें से राहे ख़ुदा में ख़र्च करते तो उन पर क्या आफ़त आ जाती और ख़ुदा तो उनसे ख़ूब वाकि़फ़ है (39) 

वल्मुहसनात

إِنَّ اللّهَ لاَ يَظْلِمُ مِثْقَالَ ذَرَّةٍ وَإِن تَكُ حَسَنَةً يُضَاعِفْهَا وَيُؤْتِ مِن لَّدُنْهُ أَجْرًا عَظِيمًا {40}

ख़ुदा तो हरगिज़ ज़र्रा बराबर भी ज़ुल्म नहीं करता बल्कि अगर ज़र्रा बराबर भी किसी की कोई नेकी हो तो उसको दूना करता है और अपनी तरफ़ से बड़ा सवाब अता फ़रमाता है (40) 

वल्मुहसनात

فَكَيْفَ إِذَا جِئْنَا مِن كُلِّ أمَّةٍ بِشَهِيدٍ وَجِئْنَا بِكَ عَلَى هَـؤُلاء شَهِيدًا {41}

(ख़ैर दुनिया में तो जो चाहे करें) भला उस वक़्त क्या हाल होगा जब हम हर गिरोह के गवाह तलब करेंगे और (मोहम्मद (स०)) तुमको उन सब पर गवाह की हैसियत में तलब करेंगे (41) 

वल्मुहसनात

يَوْمَئِذٍ يَوَدُّ الَّذِينَ كَفَرُواْ وَعَصَوُاْ الرَّسُولَ لَوْ تُسَوَّى بِهِمُ الأَرْضُ وَلاَ يَكْتُمُونَ اللّهَ حَدِيثًا {42}

उस दिन जिन लोगों ने फ़जऱ् इख़्तेयार किया और रसूल की नाफ़रमानी की ये आरज़ू करेंगे कि काश (वह पेवन्दे ख़ाक हो जाते) और उनके ऊपर से ज़मीन बराबर कर दी जाती और अफ़सोस ये लोग ख़ुदा से कोई बात उस दिन छुपा भी न सकेंगे (42)

वल्मुहसनात

يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُواْ لاَ تَقْرَبُواْ الصَّلاَةَ وَأَنتُمْ سُكَارَى حَتَّىَ تَعْلَمُواْ مَا تَقُولُونَ وَلاَ جُنُبًا إِلاَّ عَابِرِي سَبِيلٍ حَتَّىَ تَغْتَسِلُواْ وَإِن كُنتُم مَّرْضَى أَوْ عَلَى سَفَرٍ أَوْ جَاء أَحَدٌ مِّنكُم مِّن الْغَآئِطِ أَوْ لاَمَسْتُمُ النِّسَاء فَلَمْ تَجِدُواْ مَاء فَتَيَمَّمُواْ صَعِيدًا طَيِّبًا فَامْسَحُواْ بِوُجُوهِكُمْ وَأَيْدِيكُمْ إِنَّ اللّهَ كَانَ عَفُوًّا غَفُورًا {43}

ऐ ईमानदारों तुम नशे की हालत में नमाज़ के क़रीब न जाओ ताकि तुम जो कुछ मुँह से कहो समझो भी तो और न जिनाबत की हालत में यहाँ तक कि ग़ुस्ल कर लो मगर राह गुज़र में हो (और गु़स्ल मुमकिन नहीं है तो अलबत्ता ज़रूरत नहीं) बल्कि अगर तुम मरीज़ हो और पानी नुक़सान करे या सफ़र में हो तुममें से किसी का पैख़ाना निकल आए या औरतों से सोहबत की हो और तुमको पानी न मयस्सर हो (कि तहारत करो) तो पाक मिट्टी पर तैमूम कर लो और (उस का तरीक़ा ये है कि) अपने मुँह और हाथों पर मिट्टी भरा हाथ फेरो तो बेशक ख़ुदा माफ़ करने वाला है (और) बख़्शने वाला है (43) 

वल्मुहसनात

أَلَمْ تَرَ إِلَى الَّذِينَ أُوتُواْ نَصِيبًا مِّنَ الْكِتَابِ يَشْتَرُونَ الضَّلاَلَةَ وَيُرِيدُونَ أَن تَضِلُّواْ السَّبِيلَ {44}

(ऐ रसूल) क्या तुमने उन लोगों के हाल पर नज़र नहीं की जिन्हें किताबे ख़ुदा का कुछ हिस्सा दिया गया था (मगर) वह लोग (हिदायत के बदले) गुमराही ख़रीदने लगे उनकी ऐन मुराद यह है कि तुम भी राहे रास्त से बहक जाओ (44) 

वल्मुहसनात

وَاللّهُ أَعْلَمُ بِأَعْدَائِكُمْ وَكَفَى بِاللّهِ وَلِيًّا وَكَفَى بِاللّهِ نَصِيرًا {45}

और ख़ुदा तुम्हारे दुशमनों से ख़ूब वाकि़फ़ है और दोस्ती के लिए बस ख़ुदा काफ़ी है और हिमायत के वास्ते भी ख़ुदा ही काफ़ी है (45) 

वल्मुहसनात

مِّنَ الَّذِينَ هَادُواْ يُحَرِّفُونَ الْكَلِمَ عَن مَّوَاضِعِهِ وَيَقُولُونَ سَمِعْنَا وَعَصَيْنَا وَاسْمَعْ غَيْرَ مُسْمَعٍ وَرَاعِنَا لَيًّا بِأَلْسِنَتِهِمْ وَطَعْنًا فِي الدِّينِ وَلَوْ أَنَّهُمْ قَالُواْ سَمِعْنَا وَأَطَعْنَا وَاسْمَعْ وَانظُرْنَا لَكَانَ خَيْرًا لَّهُمْ وَأَقْوَمَ وَلَكِن لَّعَنَهُمُ اللّهُ بِكُفْرِهِمْ فَلاَ يُؤْمِنُونَ إِلاَّ قَلِيلاً {46}

(ऐ रसूल) यहूद से कुछ लोग ऐसे भी हैं जो बातों में उनके महल व मौक़े से हेर फेर डाल देते हैं और अपनी ज़बानों को मरोड़कर और दीन पर तानाज़नी की राह से तुमसे समेअना व असैना (हमने सुना और नाफ़रमानी की) और वसमअ गै़रा मुसमइन (तुम मेरी सुनो ख़ुदा तुमको न सुनवाए) राअना (मेरा ख़्याल करो मेरे चरवाहे) कहा करते हैं और अगर वह इसके बदले समेअना व अताअना (हमने सुना और माना) और इसमाआ (मेरी सुनो) और (राअना) के एवज़ उनजुरना (हमपर निगाह रख) कहते तो उनके हक़ में कहीं बेहतर होता और बिल्कुल सीधी बात थी मगर उनपर तो उनके कुफ़्र की वजह से ख़ुदा की फि़टकार है (46) 

वल्मुहसनात

يَا أَيُّهَا الَّذِينَ أُوتُواْ الْكِتَابَ آمِنُواْ بِمَا نَزَّلْنَا مُصَدِّقًا لِّمَا مَعَكُم مِّن قَبْلِ أَن نَّطْمِسَ وُجُوهًا فَنَرُدَّهَا عَلَى أَدْبَارِهَا أَوْ نَلْعَنَهُمْ كَمَا لَعَنَّا أَصْحَابَ السَّبْتِ وَكَانَ أَمْرُ اللّهِ مَفْعُولاً {47}

बस उनमें से चन्द लोगों के सिवा और लोग ईमान ही न लाएंगे ऐ एहले किताब जो (किताब) हमने नाजि़ल की है और उस (किताब) की भी तस्दीक़ करती है जो तुम्हारे पास है उस पर इमान लाओ मगर क़ब्ल इसके कि हम कुछ लोगों के चेहरे बिगाड़कर उनके पुश्त की तरफ़ फेर दें या जिस तरह हमने असहाबे सबत (हफ़्ते वालों) पर फिटकार बरसायी वैसी ही फिटकार उनपर भी करें (47) 

वल्मुहसनात

إِنَّ اللّهَ لاَ يَغْفِرُ أَن يُشْرَكَ بِهِ وَيَغْفِرُ مَا دُونَ ذَلِكَ لِمَن يَشَاء وَمَن يُشْرِكْ بِاللّهِ فَقَدِ افْتَرَى إِثْمًا عَظِيمًا {48}

और ख़ुदा का हुक्म किया कराया हुआ काम समझो ख़ुदा उस जुर्म को तो अलबत्ता नहीं माफ़ करता कि उसके साथ शिर्क किया जाए हाँ उसके सिवा जो गुनाह हो जिसको चाहे माफ़ कर दे और जिसने (किसी को) ख़ुदा का शरीक बनाया तो उसने बड़े गुनाह का तूफान बांधा (48) 

वल्मुहसनात

أَلَمْ تَرَ إِلَى الَّذِينَ يُزَكُّونَ أَنفُسَهُمْ بَلِ اللّهُ يُزَكِّي مَن يَشَاء وَلاَ يُظْلَمُونَ فَتِيلاً {49}

(ऐ रसूल) क्या तुमने उन लोगों के हाल पर नज़र नहीं की जो आप बड़े मुक़द्दस बनते हैं (मगर इससे क्या होता है) बल्कि ख़ुदा जिसे चाहता है मुक़द्दस बनाता है और ज़ुल्म तो किसी पर धागे के बराबर हो ही गा नहीं (49) 

वल्मुहसनात

انظُرْ كَيفَ يَفْتَرُونَ عَلَى اللّهِ الكَذِبَ وَكَفَى بِهِ إِثْمًا مُّبِينًا {50}

(ऐ रसूल) ज़रा देखो तो ये लोग ख़ुदा पर कैसे कैसे झूठ तूफ़ान जोड़ते हैं और खुल्लम खुल्ला गुनाह के वास्ते तो यही काफ़ी है (50) 

वल्मुहसनात

أَلَمْ تَرَ إِلَى الَّذِينَ أُوتُواْ نَصِيبًا مِّنَ الْكِتَابِ يُؤْمِنُونَ بِالْجِبْتِ وَالطَّاغُوتِ وَيَقُولُونَ لِلَّذِينَ كَفَرُواْ هَؤُلاء أَهْدَى مِنَ الَّذِينَ آمَنُواْ سَبِيلاً {51}

(ऐ रसूल) क्या तुमने उन लोगों के (हाल पर) नज़र नहीं की जिन्हें किताबे ख़ुदा का कुछ हिस्सा दिया गया था और (फिर) शैतान और बुतों का कलमा पढ़ने लगे और जिन लोगों ने कुफ़्र इख़्तेयार किया है उनकी निस्बत कहने लगे कि ये तो इमान लाने वालों से ज़्यादा राहे रास्त पर हैं (51) 

वल्मुहसनात

أُوْلَـئِكَ الَّذِينَ لَعَنَهُمُ اللّهُ وَمَن يَلْعَنِ اللّهُ فَلَن تَجِدَ لَهُ نَصِيرًا {52}

(ऐ रसूल) यही वह लोग हैं जिनपर ख़ुदा ने लानत की है और जिस पर ख़ुदा ने लानत की है तुम उनका मददगार हरगिज़ किसी को न पाओगे (52) 

वल्मुहसनात

أَمْ لَهُمْ نَصِيبٌ مِّنَ الْمُلْكِ فَإِذًا لاَّ يُؤْتُونَ النَّاسَ نَقِيرًا {53}

क्या (दुनिया) की सल्तनत में कुछ उनका भी हिस्सा है कि इस वजह से लोगों को भूसी भर भी न देंगे (53) 

वल्मुहसनात

أَمْ يَحْسُدُونَ النَّاسَ عَلَى مَا آتَاهُمُ اللّهُ مِن فَضْلِهِ فَقَدْ آتَيْنَا آلَ إِبْرَاهِيمَ الْكِتَابَ وَالْحِكْمَةَ وَآتَيْنَاهُم مُّلْكًا عَظِيمًا {54}

यह ख़ुदा ने जो अपने फ़ज़ल से (तुम) लोगों को (कु़रान) अता फ़रमाया है इसके रश्क पर जले जाते हैं (तो उसका क्या इलाज है) हमने तो इबराहीम की औलाद को किताब और अक़्ल की बातें अता फ़रमायी हैं और उनको बहुत बड़ी सल्तनत भी दी (54)

वल्मुहसनात

فَمِنْهُم مَّنْ آمَنَ بِهِ وَمِنْهُم مَّن صَدَّ عَنْهُ وَكَفَى بِجَهَنَّمَ سَعِيرًا {55}

फिर कुछ लोग तो इस (किताब) पर ईमान लाए और कुछ लोगों ने उससे इन्कार किया और इसकी सज़ा के लिए जहन्नुम की दहकती हुयी आग काफ़ी है (55) 

वल्मुहसनात

إِنَّ الَّذِينَ كَفَرُواْ بِآيَاتِنَا سَوْفَ نُصْلِيهِمْ نَارًا كُلَّمَا نَضِجَتْ جُلُودُهُمْ بَدَّلْنَاهُمْ جُلُودًا غَيْرَهَا لِيَذُوقُواْ الْعَذَابَ إِنَّ اللّهَ كَانَ عَزِيزًا حَكِيمًا {56}

(याद रहे) कि जिन लोगों ने हमारी आयतों से इन्कार किया उन्हें ज़रूर अनक़रीब जहन्नुम की आग में झोंक देंगे (और जब उनकी खालें जल कर) जल जाएंगी तो हम उनके लिए दूसरी खालें बदल कर पैदा करे देंगे ताकि वह अच्छी तरह अज़ाब का मज़ा चखें बेशक ख़ुदा हरचीज़ पर ग़ालिब और हिकमत वाला है (56) 

वल्मुहसनात

وَالَّذِينَ آمَنُواْ وَعَمِلُواْ الصَّالِحَاتِ سَنُدْخِلُهُمْ جَنَّاتٍ تَجْرِي مِن تَحْتِهَا الأَنْهَارُ خَالِدِينَ فِيهَا أَبَدًا لَّهُمْ فِيهَا أَزْوَاجٌ مُّطَهَّرَةٌ وَنُدْخِلُهُمْ ظِـلاًّ ظَلِيلاً {57}

और जो लोग ईमान लाए और अच्छे अच्छे काम किए हम उनको अनक़रीब ही (बेहिश्त के) ऐसे ऐसे (हरे भरे) बाग़ों में जा पहुँचाएंगे जिन के नीचे नहरें जारी होंगी और उनमें हमेशा रहेंगे वहां उनकी साफ़ सुथरी बीवियाँ होंगी और उन्हे घनी छाव में ले जाकर रखेंगे (57) 

वल्मुहसनात

إِنَّ اللّهَ يَأْمُرُكُمْ أَن تُؤدُّواْ الأَمَانَاتِ إِلَى أَهْلِهَا وَإِذَا حَكَمْتُم بَيْنَ النَّاسِ أَن تَحْكُمُواْ بِالْعَدْلِ إِنَّ اللّهَ نِعِمَّا يَعِظُكُم بِهِ إِنَّ اللّهَ كَانَ سَمِيعًا بَصِيرًا {58}

ऐ ईमानदारों ख़ुदा तुम्हें हुक्म देता है कि लोगों की अमानतें अमानत रखने वालों के हवाले कर दो और जब लोगों के बाहमी झगड़ों का फै़सला करने लगो तो इन्साफ़ से फै़सला करो (ख़ुदा तुमको) इसकी क्या ही अच्छी नसीहत करता है इसमें तो शक नहीं कि ख़ुदा सबकी सुनता है (और सब कुछ) देखता है (58) 

वल्मुहसनात

يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُواْ أَطِيعُواْ اللّهَ وَأَطِيعُواْ الرَّسُولَ وَأُوْلِي الأَمْرِ مِنكُمْ فَإِن تَنَازَعْتُمْ فِي شَيْءٍ فَرُدُّوهُ إِلَى اللّهِ وَالرَّسُولِ إِن كُنتُمْ تُؤْمِنُونَ بِاللّهِ وَالْيَوْمِ الآخِرِ ذَلِكَ خَيْرٌ وَأَحْسَنُ تَأْوِيلاً {59}

ऐ ईमानदारों ख़ुदा की इताअत करो और रसूल की और जो तुममें से साहेबाने हुकूमत हों उनकी इताअत करो और अगर तुम किसी बात में झगड़ा करो बस अगर तुम ख़ुदा और रोज़े आखि़रत पर इमान रखते हो तो इस अम्र में ख़ुदा और रसूल की तरफ़ रूजू करो यही तुम्हारे हक़ में बेहतर है और अन्जाम की राह से बहुत अच्छा है (59) 

वल्मुहसनात

أَلَمْ تَرَ إِلَى الَّذِينَ يَزْعُمُونَ أَنَّهُمْ آمَنُواْ بِمَا أُنزِلَ إِلَيْكَ وَمَا أُنزِلَ مِن قَبْلِكَ يُرِيدُونَ أَن يَتَحَاكَمُواْ إِلَى الطَّاغُوتِ وَقَدْ أُمِرُواْ أَن يَكْفُرُواْ بِهِ وَيُرِيدُ الشَّيْطَانُ أَن يُضِلَّهُمْ ضَلاَلاً بَعِيدًا {60}

(ऐ रसूल) क्या तुमने उन लोगों की (हालत) पर नज़र नहीं की जो ये ख़्याली पुलाओ पकाते हैं कि जो किताब तुझ पर नाजि़ल की गयी और जो किताबें तुम से पहले नाजि़ल की गयी (सब पर) ईमान लाए और दिली तमन्ना ये है कि सरकशों को अपना हाकिम बनाएं हालांकि उनको हुक्म दिया गया कि उसकी बात न मानें और शैतान तो यह चाहता है कि उन्हें बहका के बहुत दूर ले जाए (60) 

वल्मुहसनात

وَإِذَا قِيلَ لَهُمْ تَعَالَوْاْ إِلَى مَا أَنزَلَ اللّهُ وَإِلَى الرَّسُولِ رَأَيْتَ الْمُنَافِقِينَ يَصُدُّونَ عَنكَ صُدُودًا {61}

और जब उनसे कहा जाता है कि ख़ुदा ने जो किताब नाजि़ल की है उसकी तरफ़ और रसूल की तरफ़ रूजू करो तो तुम मुनाफि़क़ीन को देखते हो कि तुमसे किस तरह मुँह फेर लेते हैं (61) 

वल्मुहसनात

فَكَيْفَ إِذَا أَصَابَتْهُم مُّصِيبَةٌ بِمَا قَدَّمَتْ أَيْدِيهِمْ ثُمَّ جَآؤُوكَ يَحْلِفُونَ بِاللّهِ إِنْ أَرَدْنَا إِلاَّ إِحْسَانًا وَتَوْفِيقًا {62}

कि जब उनपर उनके करतूत की वजह से कोई मुसीबत पड़ती है तो क्योंकि तुम्हारे पास ख़ुदा की क़समें खाते हैं कि हमारा मतलब नेकी और मेल मिलाप के सिवा कुछ न था ये वह लोग हैं कि कुछ ख़ुदा ही उनके दिल की हालत ख़ूब जानता है (62) 

वल्मुहसनात

أُولَـئِكَ الَّذِينَ يَعْلَمُ اللّهُ مَا فِي قُلُوبِهِمْ فَأَعْرِضْ عَنْهُمْ وَعِظْهُمْ وَقُل لَّهُمْ فِي أَنفُسِهِمْ قَوْلاً بَلِيغًا {63}

बस तुम उनसे दरगुज़र करो और उनको नसीहत करो और उनसे उनके दिल में असर करने वाली बात कहो और हमने कोई रसूल नहीं भेजा मगर इस वास्ते कि ख़ुदा के हुक्म से लोग उसकी इताअत करें (63) 

वल्मुहसनात

وَمَا أَرْسَلْنَا مِن رَّسُولٍ إِلاَّ لِيُطَاعَ بِإِذْنِ اللّهِ وَلَوْ أَنَّهُمْ إِذ ظَّلَمُواْ أَنفُسَهُمْ جَآؤُوكَ فَاسْتَغْفَرُواْ اللّهَ وَاسْتَغْفَرَ لَهُمُ الرَّسُولُ لَوَجَدُواْ اللّهَ تَوَّابًا رَّحِيمًا {64}

और (रसूल) जब उन लोगों ने (नाफ़रमानी करके) अपनी जानों पर जु़ल्म किया था अगर तुम्हारे पास चले आते और ख़ुदा से माफ़ी माँगते और रसूल (तुम) भी उनकी मग़फि़रत चाहते तो बेशक वह लोग ख़ुदा को बड़ा तौबा क़ुबूल करने वाला मेहरबान पाते (64)

वल्मुहसनात

فَلاَ وَرَبِّكَ لاَ يُؤْمِنُونَ حَتَّىَ يُحَكِّمُوكَ فِيمَا شَجَرَ بَيْنَهُمْ ثُمَّ لاَ يَجِدُواْ فِي أَنفُسِهِمْ حَرَجًا مِّمَّا قَضَيْتَ وَيُسَلِّمُواْ تَسْلِيمًا {65}

बस (ऐ रसूल) तुम्हारे परवरदिगार की क़सम ये लोग सच्चे मोमिन न होंगे तावक़्ते (जब तक) कि अपने बाहमी झगड़ों में तुमको अपना हाकिम (न) बनाएं फिर (यही नहीं बल्कि) जो कुछ तुम फै़सला करो उससे किसी तरह दिलतंग भी न हों बल्कि ख़ुशी ख़ुशी उसको मान लें (65) 

वल्मुहसनात

وَلَوْ أَنَّا كَتَبْنَا عَلَيْهِمْ أَنِ اقْتُلُواْ أَنفُسَكُمْ أَوِ اخْرُجُواْ مِن دِيَارِكُم مَّا فَعَلُوهُ إِلاَّ قَلِيلٌ مِّنْهُمْ وَلَوْ أَنَّهُمْ فَعَلُواْ مَا يُوعَظُونَ بِهِ لَكَانَ خَيْرًا لَّهُمْ وَأَشَدَّ تَثْبِيتًا {66}

(इस्लामी शरीयत में तो उनका ये हाल है) और अगर हम बनी इसराइल की तरह उनपर ये हुक्म जारी कर देते कि तुम अपने आपको क़त्ल कर डालो या शहर बदर हो जाओ तो उनमें से चन्द आदमियों के सिवा ये लोग तो उसको न करते और अगर ये लोग इस बात पर अमल करते जिसकी उन्हें नसीहत की जाती है तो उनके हक़ में बहुत बेहतर होता (66) 

वल्मुहसनात

وَإِذاً لَّآتَيْنَاهُم مِّن لَّدُنَّـا أَجْراً عَظِيمًا {67}

और (दीन में भी) बहुत साबित क़दमी से जमे रहते और इस सूरत में हम भी अपनी तरफ़ से ज़रूर बड़ा अच्छा बदला देते (67)

वल्मुहसनात

وَلَهَدَيْنَاهُمْ صِرَاطًا مُّسْتَقِيمًا {68}

और उनको राहे रास्त की भी ज़रूर हिदायत करते (68) 

वल्मुहसनात

وَمَن يُطِعِ اللّهَ وَالرَّسُولَ فَأُوْلَـئِكَ مَعَ الَّذِينَ أَنْعَمَ اللّهُ عَلَيْهِم مِّنَ النَّبِيِّينَ وَالصِّدِّيقِينَ وَالشُّهَدَاء وَالصَّالِحِينَ وَحَسُنَ أُولَـئِكَ رَفِيقًا {69}

और जिस शख़्स ने ख़ुदा और रसूल की इताअत की तो ऐसे लोग उन (मक़बूल) बन्दों के साथ होंगे जिन्हें ख़ुदा ने अपनी नेअमतें दी हैं यानि अम्बिया और सिद्दीक़ीन और शोहदा और सालेहीन और ये लोग क्या ही अच्छे रफ़ीक़ हैं (69)

वल्मुहसनात

ذَلِكَ الْفَضْلُ مِنَ اللّهِ وَكَفَى بِاللّهِ عَلِيمًا {70}

ये ख़ुदा का फ़ज़ल (व करम) है और ख़ुदा तो वाकि़फ़कारी में बस है (70)

वल्मुहसनात

يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُواْ خُذُواْ حِذْرَكُمْ فَانفِرُواْ ثُبَاتٍ أَوِ انفِرُواْ جَمِيعًا {71}

ऐ ईमानवालों (जिहाद के वक़्त) अपनी हिफ़ाज़त के (ज़राए) अच्छी तरह देखभाल लो फिर तुम्हें इख़्तेयार है ख़्वाह दस्ता दस्ता निकलो या सबके सब इकट्ठे होकर निकल खड़े हो (71) 

वल्मुहसनात

وَإِنَّ مِنكُمْ لَمَن لَّيُبَطِّئَنَّ فَإِنْ أَصَابَتْكُم مُّصِيبَةٌ قَالَ قَدْ أَنْعَمَ اللّهُ عَلَيَّ إِذْ لَمْ أَكُن مَّعَهُمْ شَهِيدًا {72}

और तुममें से बाज़ ऐसे भी हैं जो (जेहाद से) ज़रूर पीछे रहेंगे फिर अगर इत्तेफ़ाक़न तुमपर कोई मुसीबत आ पड़ी तो कहने लगे ख़ुदा ने हमपर बड़ा फ़ज़ल किया कि मैं उन (मुसलमानों) के साथ मौजूद न हुआ (72) 

वल्मुहसनात

وَلَئِنْ أَصَابَكُمْ فَضْلٌ مِّنَ الله لَيَقُولَنَّ كَأَن لَّمْ تَكُن بَيْنَكُمْ وَبَيْنَهُ مَوَدَّةٌ يَا لَيتَنِي كُنتُ مَعَهُمْ فَأَفُوزَ فَوْزًا عَظِيمًا {73}

और अगर तुमपर ख़ुदा ने फ़ज़ल किया (और दुश्मन पर ग़ालिब आए) तो इस तरह अजनबी बनके कि गोया तुममें उसमें कभी मोहब्बत ही न थी यॅू कहने लगा कि ऐ काश उनके साथ होता तो मैं भी बड़ी कामयाबी हासिल करता (73) 

वल्मुहसनात

فَلْيُقَاتِلْ فِي سَبِيلِ اللّهِ الَّذِينَ يَشْرُونَ الْحَيَاةَ الدُّنْيَا بِالآخِرَةِ وَمَن يُقَاتِلْ فِي سَبِيلِ اللّهِ فَيُقْتَلْ أَو يَغْلِبْ فَسَوْفَ نُؤْتِيهِ أَجْرًا عَظِيمًا {74}

बस जो लोग दुनिया की जि़न्दगी (जान तक) आख़ेरत के वास्ते दे डालने को मौजूद हैं उनको ख़ुदा की राह में जेहाद करना चाहिए और जिसने ख़ुदा की राह में जेहाद किया फिर शहीद हुआ तो गोया ग़ालिब आया तो (बहरहाल) हम तो अनक़रीब ही उसको बड़ा अज्र अता फ़रमायेंगे (74) 

वल्मुहसनात

وَمَا لَكُمْ لاَ تُقَاتِلُونَ فِي سَبِيلِ اللّهِ وَالْمُسْتَضْعَفِينَ مِنَ الرِّجَالِ وَالنِّسَاء وَالْوِلْدَانِ الَّذِينَ يَقُولُونَ رَبَّنَا أَخْرِجْنَا مِنْ هَـذِهِ الْقَرْيَةِ الظَّالِمِ أَهْلُهَا وَاجْعَل لَّنَا مِن لَّدُنكَ وَلِيًّا وَاجْعَل لَّنَا مِن لَّدُنكَ نَصِيرًا {75}

(और मुसलमानों) तुमको क्या हो गया है कि ख़ुदा की राह में उन कमज़ोर और बेबस मर्दो और औरतों और बच्चों (को कुफ़्फ़ार के पंजे से छुड़ाने) के वास्ते जेहाद नहीं करते जो (हालते मजबूरी में) ख़ुदा से दुआएं मांग रहे हैं कि ऐ हमारे पालने वाले किसी तरह इस बस्ती (मक्का) से जिसके बाशिन्दे बड़े ज़ालिम हैं हमें निकाल और अपनी तरफ़ से किसी को हमारा सरपरस्त बना और तू ख़ुद ही किसी को अपनी तरफ़ से हमारा मददगार बना (75) 

वल्मुहसनात

الَّذِينَ آمَنُواْ يُقَاتِلُونَ فِي سَبِيلِ اللّهِ وَالَّذِينَ كَفَرُواْ يُقَاتِلُونَ فِي سَبِيلِ الطَّاغُوتِ فَقَاتِلُواْ أَوْلِيَاء الشَّيْطَانِ إِنَّ كَيْدَ الشَّيْطَانِ كَانَ ضَعِيفًا {76}

(बस देखो) ईमानवाले तो ख़ुदा की राह में लड़ते हैं और कुफ़्फ़ार शैतान की राह में लड़ते मरते हैं बस (मुसलमानों) तुम शैतान के हवा ख़ाहों (मानने वालों) से लड़ो और (कुछ परवाह न करो) क्योंकि शैतान का दाव तो बहुत ही बोदा है (76) 

वल्मुहसनात

أَلَمْ تَرَ إِلَى الَّذِينَ قِيلَ لَهُمْ كُفُّواْ أَيْدِيَكُمْ وَأَقِيمُواْ الصَّلاَةَ وَآتُواْ الزَّكَاةَ فَلَمَّا كُتِبَ عَلَيْهِمُ الْقِتَالُ إِذَا فَرِيقٌ مِّنْهُمْ يَخْشَوْنَ النَّاسَ كَخَشْيَةِ اللّهِ أَوْ أَشَدَّ خَشْيَةً وَقَالُواْ رَبَّنَا لِمَ كَتَبْتَ عَلَيْنَا الْقِتَالَ لَوْلا أَخَّرْتَنَا إِلَى أَجَلٍ قَرِيبٍ قُلْ مَتَاعُ الدَّنْيَا قَلِيلٌ وَالآخِرَةُ خَيْرٌ لِّمَنِ اتَّقَى وَلاَ تُظْلَمُونَ فَتِيلاً {77}

(ऐ रसूल) क्या तुमने उन लोगों (के हाल) पर नज़र नहीं की जिनको (जेहाद की आरज़ू थी) और उनको हुक्म दिया गया था कि (अभी) अपने हाथ रोके रहो और पाबन्दी से नमाज़ पढ़ो और ज़कात दिए जाओ मगर जब जिहाद (उनपर वाजिब किया गया तो) उनमें से कुछ लोग (बोदेपन में) लोगों से इस तरह डरने लगे जैसे कोई ख़ुदा से डरे बल्कि उससे कहीं ज़्यादा और (घबराकर) कहने लगे ख़ुदाया तूने हमपर जेहाद क्यों वाजिब कर दिया हमको कुछ दिनों की और मोहलत क्यों न दी (ऐ रसूल) उनसे कह दो कि दुनिया की आसाइश बहुत थोड़ा सा है और जो (ख़ुदा से) डरता है उसकी आख़ेरत उससे कहीं बेहतर है (77) 

वल्मुहसनात

أَيْنَمَا تَكُونُواْ يُدْرِككُّمُ الْمَوْتُ وَلَوْ كُنتُمْ فِي بُرُوجٍ مُّشَيَّدَةٍ وَإِن تُصِبْهُمْ حَسَنَةٌ يَقُولُواْ هَـذِهِ مِنْ عِندِ اللّهِ وَإِن تُصِبْهُمْ سَيِّئَةٌ يَقُولُواْ هَـذِهِ مِنْ عِندِكَ قُلْ كُلًّ مِّنْ عِندِ اللّهِ فَمَا لِهَـؤُلاء الْقَوْمِ لاَ يَكَادُونَ يَفْقَهُونَ حَدِيثًا {78}

और वहां तो रेशा (बाल) बराबर भी तुम लोगों पर जु़ल्म नहीं किया जाएगा तुम चाहे जहाँ हो मौत तो तुमको ले डालेगी अगरचे तुम कैसे ही मज़बूत पक्के गुम्बदों में जा छुपो और उनको अगर कोई भलाई पहुँचती है तो कहने लगते हैं कि ये ख़ुदा की तरफ़ से है और अगर उनको कोई तकलीफ़ पहुँचती है तो (शरारत से) कहने लगते हैं कि (ऐ रसूल) ये तुम्हारी बदौलत है (ऐ रसूल) तुम कह दो कि सब ख़ुदा की तरफ़ से है बस उन लोगों को क्या हो गया है कि कोई बात ही नहीं समझते (78)

वल्मुहसनात

مَّا أَصَابَكَ مِنْ حَسَنَةٍ فَمِنَ اللّهِ وَمَا أَصَابَكَ مِن سَيِّئَةٍ فَمِن نَّفْسِكَ وَأَرْسَلْنَاكَ لِلنَّاسِ رَسُولاً وَكَفَى بِاللّهِ شَهِيدًا {79}

हालांकि (सच तो यू है कि) जब तुमको कोई तकलीफ़ पहुँचे तो (समझो कि) ख़ुदा की तरफ़ से है और जब तुमको कोई फ़ायदा पहुचे तो (समझो कि) ख़ुद तुम्हारी बदौलत है और (ऐ रसूल) हमने तुमको लोगों के पास पैग़म्बर बनाकर भेजा है और (इसके लिए) ख़ुदा की गवाही काफ़ी है (79) 

वल्मुहसनात

مَّنْ يُطِعِ الرَّسُولَ فَقَدْ أَطَاعَ اللّهَ وَمَن تَوَلَّى فَمَا أَرْسَلْنَاكَ عَلَيْهِمْ حَفِيظًا {80}

जिसने रसूल की इताअत की तो उसने ख़ुदा की इताअत की और जिसने रूगरदानी की (मुँह मोड़ा) तो तुम कुछ ख़्याल न करो (क्योंकि) हमने तुम को पासबान (मुक़र्रर) करके तो भेजा नहीं है (80) 

वल्मुहसनात

وَيَقُولُونَ طَاعَةٌ فَإِذَا بَرَزُواْ مِنْ عِندِكَ بَيَّتَ طَآئِفَةٌ مِّنْهُمْ غَيْرَ الَّذِي تَقُولُ وَاللّهُ يَكْتُبُ مَا يُبَيِّتُونَ فَأَعْرِضْ عَنْهُمْ وَتَوَكَّلْ عَلَى اللّهِ وَكَفَى بِاللّهِ وَكِيلاً {81}

(ये लोग तुम्हारे सामने) तो कह देते हैं कि हम (आपके) फ़रमाबरदार हैं लेकिन जब तुम्हारे पास से बाहर निकले तो उनमें से कुछ लोग जो कुछ तुमसे कह चुके थे उसके खि़लाफ़ रातों को मशवरा करते हैं हालांकि (ये नहीं समझते) ये लोग रातों को जो कुछ भी मशवरा करते हैं उसे ख़ुदा लिखता जाता है पास तुम उन लोगों की कुछ परवाह न करो और ख़ुदा पर भरोसा रखो और ख़ुदा कारसाज़ी के लिए काफ़ी है (81) 

वल्मुहसनात

أَفَلاَ يَتَدَبَّرُونَ الْقُرْآنَ وَلَوْ كَانَ مِنْ عِندِ غَيْرِ اللّهِ لَوَجَدُواْ فِيهِ اخْتِلاَفًا كَثِيراً {82}

तो क्या ये लोग क़ुरान में भी ग़ौर नहीं करते और (ये नहीं ख़्याल करते कि) अगर ख़ुदा के सिवा किसी और की तरफ़ से (आया) होता तो ज़रूर उसमें बड़ा इख़्तेलाफ़ पाते (82) 

वल्मुहसनात

وَإِذَا جَاءهُمْ أَمْرٌ مِّنَ الأَمْنِ أَوِ الْخَوْفِ أَذَاعُواْ بِهِ وَلَوْ رَدُّوهُ إِلَى الرَّسُولِ وَإِلَى أُوْلِي الأَمْرِ مِنْهُمْ لَعَلِمَهُ الَّذِينَ يَسْتَنبِطُونَهُ مِنْهُمْ وَلَوْلاَ فَضْلُ اللّهِ عَلَيْكُمْ وَرَحْمَتُهُ لاَتَّبَعْتُمُ الشَّيْطَانَ إِلاَّ قَلِيلاً {83}

और जब उनके (मुसलमानों के) पास अमन या ख़ौफ़ की ख़बर आयी तो उसे फ़ौरन मशहूर कर देते हैं हालांकि अगर वह उसकी ख़बर को रसूल (या) और ईमानदारो में से जो साहबाने हुकूमत तक पहुँचाते तो बेशक जो लोग उनमें से उसकी तहक़ीक़ करने वाले हैं (पैग़म्बर या वली) उसको समझ लेते कि (मशहूर करने की ज़रूरत है या नहीं) और (मुसलमानों) अगर तुमपर ख़ुदा का फ़ज़ल (व करम) और उसकी मेहरबानी न होती तो चन्द आदमियों के सिवा तुम सबके सब शैतान की पैरवी करने लगते (83)

वल्मुहसनात

فَقَاتِلْ فِي سَبِيلِ اللّهِ لاَ تُكَلَّفُ إِلاَّ نَفْسَكَ وَحَرِّضِ الْمُؤْمِنِينَ عَسَى اللّهُ أَن يَكُفَّ بَأْسَ الَّذِينَ كَفَرُواْ وَاللّهُ أَشَدُّ بَأْسًا وَأَشَدُّ تَنكِيلاً {84}

बस (ऐ रसूल) तुम ख़ुदा की राह में जिहाद करो और तुम अपनी ज़ात के सिवा किसी और के ज़िम्मेदार नहीं हो और ईमानदारों को (जिहाद की) तरग़ीब दो और अनक़रीब ख़ुदा काफि़रों की हैबत रोक देगा और ख़ुदा की हैबत सबसे ज़्यादा है और उसकी सज़ा बहुत सख़्त है (84) 

वल्मुहसनात

مَّن يَشْفَعْ شَفَاعَةً حَسَنَةً يَكُن لَّهُ نَصِيبٌ مِّنْهَا وَمَن يَشْفَعْ شَفَاعَةً سَيِّئَةً يَكُن لَّهُ كِفْلٌ مِّنْهَا وَكَانَ اللّهُ عَلَى كُلِّ شَيْءٍ مُّقِيتًا {85}

जो शख़्स अच्छे काम की सिफ़ारिश करे तो उसको भी उस काम के सवाब से कुछ हिस्सा मिलेगा और जो बुरे काम की सिफ़ारिश करे तो उसको भी उसी काम की सज़ा का कुछ हिस्सा मिलेगा और ख़ुदा तो हर चीज़ पर निगेहबान है (85) 

वल्मुहसनात

وَإِذَا حُيِّيْتُم بِتَحِيَّةٍ فَحَيُّواْ بِأَحْسَنَ مِنْهَا أَوْ رُدُّوهَا إِنَّ اللّهَ كَانَ عَلَى كُلِّ شَيْءٍ حَسِيبًا {86}

और जब कोई शख़्स सलाम करे तो तुम भी उसके जवाब में उससे बेहतर तरीक़े से सलाम करो या वही लफ़्ज़ जवाब में कह दो बेशक ख़ुदा हर चीज़ का हिसाब करने वाला है (86) 

वल्मुहसनात

اللّهُ لا إِلَـهَ إِلاَّ هُوَ لَيَجْمَعَنَّكُمْ إِلَى يَوْمِ الْقِيَامَةِ لاَ رَيْبَ فِيهِ وَمَنْ أَصْدَقُ مِنَ اللّهِ حَدِيثًا {87}

अल्लाह तो वही परवरदिगार है जिसके सिवा कोई क़ाबिले परस्तिश नहीं वह तुमको क़यामत के दिन जिसमें ज़रा भी शक नहीं ज़रूर इकट्ठा करेगा और ख़ुदा से बढ़कर बात में सच्चा कौन होगा (87) 

वल्मुहसनात

فَمَا لَكُمْ فِي الْمُنَافِقِينَ فِئَتَيْنِ وَاللّهُ أَرْكَسَهُم بِمَا كَسَبُواْ أَتُرِيدُونَ أَن تَهْدُواْ مَنْ أَضَلَّ اللّهُ وَمَن يُضْلِلِ اللّهُ فَلَن تَجِدَ لَهُ سَبِيلاً {88}

(मुसलमानों) फिर तुमको क्या हो गया है कि तुम मुनाफि़क़ों के बारे में दो फ़रीक़ हो गए हो (एक मुवाफि़क़ एक मुख़ालिफ़) हालांकि ख़ुद ख़ुदा ने उनके करतूतों की बदौलत उनकी अक़्लों को उलट पुलट दिया है क्या तुम ये चाहते हो कि जिसको ख़ुदा ने गुमराही में छोड़ दिया है तुम उसे राहे रास्त पर ले आओ हालांकि ख़ुदा ने जिसको गुमराही में छोड़ दिया है उसके लिए तुममें से कोई शख़्स रास्ता निकाल ही नहीं सकता (88) 

वल्मुहसनात

وَدُّواْ لَوْ تَكْفُرُونَ كَمَا كَفَرُواْ فَتَكُونُونَ سَوَاء فَلاَ تَتَّخِذُواْ مِنْهُمْ أَوْلِيَاء حَتَّىَ يُهَاجِرُواْ فِي سَبِيلِ اللّهِ فَإِن تَوَلَّوْاْ فَخُذُوهُمْ وَاقْتُلُوهُمْ حَيْثُ وَجَدتَّمُوهُمْ وَلاَ تَتَّخِذُواْ مِنْهُمْ وَلِيًّا وَلاَ نَصِيرًا {89}

उन लोगों की ख़्वाहिश तो ये है कि जिस तरह वह काफि़र हो गए तुम भी काफि़र हो जाओ ताकि तुम उनके बराबर हो जाओ बस जब तक वह ख़ुदा की राह में हिजरत न करें तो उनमें से किसी को दोस्त न बनाओ फिर अगर वह उससे भी मुँह मोड़ें तो उन्हें गिरफ़्तार करो और जहाँ पाओ उनको क़त्ल करो और उनमें से किसी को न अपना दोस्त बनाओ न मददगार (89) 

वल्मुहसनात

إِلاَّ الَّذِينَ يَصِلُونَ إِلَىَ قَوْمٍ بَيْنَكُمْ وَبَيْنَهُم مِّيثَاقٌ أَوْ جَآؤُوكُمْ حَصِرَتْ صُدُورُهُمْ أَن يُقَاتِلُوكُمْ أَوْ يُقَاتِلُواْ قَوْمَهُمْ وَلَوْ شَاء اللّهُ لَسَلَّطَهُمْ عَلَيْكُمْ فَلَقَاتَلُوكُمْ فَإِنِ اعْتَزَلُوكُمْ فَلَمْ يُقَاتِلُوكُمْ وَأَلْقَوْاْ إِلَيْكُمُ السَّلَمَ فَمَا جَعَلَ اللّهُ لَكُمْ عَلَيْهِمْ سَبِيلاً {90}

मगर जो लोग किसी ऐसी क़ौम से जा मिलें कि तुममें और उनमें (सुलह का) एहद व पैमान हो चुका है या तुमसे जंग करने या अपनी क़ौम के साथ लड़ने से दिलतंग होकर तुम्हारे पास आए हों (तो उन्हें आज़ार न पहुँचाओ) और अगर ख़ुदा चाहता तो उनको तुमपर ग़लबा देता तो वह तुमसे ज़रूर लड़ पड़ते बस अगर वह तुमसे किनारा कशी करे और तुमसे न लड़े और तुम्हारे पास सुलाह का पैग़ाम दे तो तुम्हारे लिए उन लोगों पर आज़ार पहुँचाने की ख़ुदा ने कोई सबील नहीं निकाली (90) 

वल्मुहसनात

سَتَجِدُونَ آخَرِينَ يُرِيدُونَ أَن يَأْمَنُوكُمْ وَيَأْمَنُواْ قَوْمَهُمْ كُلَّ مَا رُدُّوَاْ إِلَى الْفِتْنِةِ أُرْكِسُواْ فِيِهَا فَإِن لَّمْ يَعْتَزِلُوكُمْ وَيُلْقُواْ إِلَيْكُمُ السَّلَمَ وَيَكُفُّوَاْ أَيْدِيَهُمْ فَخُذُوهُمْ وَاقْتُلُوهُمْ حَيْثُ ثِقِفْتُمُوهُمْ وَأُوْلَـئِكُمْ جَعَلْنَا لَكُمْ عَلَيْهِمْ سُلْطَانًا مُّبِينًا {91}

अनक़रीब तुम कुछ ऐसे और लोगों को भी पाओगे जो चाहते हैं कि तुमसे भी अमन में रहें और अपनी क़ौम से भी अमन मे रहें (मगर) जब कभी झगड़े की तरफ़ बुलाए गए तो उसमें औंधे मुँह के बल गिर पड़े बस अगर वह तुमसे न किनारा कशी करें और न तुम्हें सुलह का पैग़ाम दें और न लड़ाई से अपने हाथ रोकें बस उनको पकड़ों और जहाँ पाओ उनको क़त्ल करो और यही वह लोग हैं जिनपर हमने तुम्हें सरीही ग़लबा अता फ़रमाया (91) 

वल्मुहसनात

وَمَا كَانَ لِمُؤْمِنٍ أَن يَقْتُلَ مُؤْمِنًا إِلاَّ خَطَئًا وَمَن قَتَلَ مُؤْمِنًا خَطَئًا فَتَحْرِيرُ رَقَبَةٍ مُّؤْمِنَةٍ وَدِيَةٌ مُّسَلَّمَةٌ إِلَى أَهْلِهِ إِلاَّ أَن يَصَّدَّقُواْ فَإِن كَانَ مِن قَوْمٍ عَدُوٍّ لَّكُمْ وَهُوَ مْؤْمِنٌ فَتَحْرِيرُ رَقَبَةٍ مُّؤْمِنَةٍ وَإِن كَانَ مِن قَوْمٍ بَيْنَكُمْ وَبَيْنَهُمْ مِّيثَاقٌ فَدِيَةٌ مُّسَلَّمَةٌ إِلَى أَهْلِهِ وَتَحْرِيرُ رَقَبَةٍ مُّؤْمِنَةً فَمَن لَّمْ يَجِدْ فَصِيَامُ شَهْرَيْنِ مُتَتَابِعَيْنِ تَوْبَةً مِّنَ اللّهِ وَكَانَ اللّهُ عَلِيمًا حَكِيمًا {92}

और किसी ईमानदार को ये जायज़ नहीं कि किसी मोमिन को जान से मार डाले मगर धोखे से (क़त्ल किया हो तो दूसरी बात है) और जो शख़्स किसी मोमिन को धोखे से (भी) मार डाले तो (उसपर) एक ईमानदार गु़लाम का आज़ाद करना और मक़तूल के क़राबतदारों को खूंन बहा देना (लाजि़म) है मगर जब वह लोग माफ़ करें फिर अगर मक़तूल उन लोगों में से हो वह जो तुम्हारे दुश्मन (काफि़र हरबी) हैं और ख़ुद क़ातिल मोमिन है तो (सिर्फ) एक मुसलमान ग़ुलाम का आज़ाद करना और अगर मक़तूल उन (काफि़र) लोगों में का हो जिनसे तुम से एहद व पैमान हो चुका है तो (क़ातिल पर) वारिसे मक़तूल को ख़ून बहा देना और एक बन्दए मोमिन का आज़ाद करना (वाजिब) है फि़र जो शख़्स (ग़ुलाम आज़ाद करने को) न पाये तो उसका कुफ़्फ़ारा ख़ुदा की तरफ़ से लगातार दो महीने के रोज़े हैं और ख़ुदा ख़ूब वाकिफ़कार (और) हिकमत वाला है (92) 

वल्मुहसनात

وَمَن يَقْتُلْ مُؤْمِنًا مُّتَعَمِّدًا فَجَزَآؤُهُ جَهَنَّمُ خَالِدًا فِيهَا وَغَضِبَ اللّهُ عَلَيْهِ وَلَعَنَهُ وَأَعَدَّ لَهُ عَذَابًا عَظِيمًا {93}

और जो शख़्स किसी मोमिन को जानबूझ के मार डाले (ग़ुलाम की आज़ादी वगैरह उसका कुफ़्फ़ारा नहीं बल्कि) उसकी सज़ा दोज़ख़ है और वह उसमें हमेशा रहेगा उसपर ख़ुदा ने (अपना) ग़ज़ब ढाया है और उसपर लानत की है और उसके लिए बड़ा सख़्त अज़ाब तैयार कर रखा है (93) 

वल्मुहसनात

يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُواْ إِذَا ضَرَبْتُمْ فِي سَبِيلِ اللّهِ فَتَبَيَّنُواْ وَلاَ تَقُولُواْ لِمَنْ أَلْقَى إِلَيْكُمُ السَّلاَمَ لَسْتَ مُؤْمِنًا تَبْتَغُونَ عَرَضَ الْحَيَاةِ الدُّنْيَا فَعِندَ اللّهِ مَغَانِمُ كَثِيرَةٌ كَذَلِكَ كُنتُم مِّن قَبْلُ فَمَنَّ اللّهُ عَلَيْكُمْ فَتَبَيَّنُواْ إِنَّ اللّهَ كَانَ بِمَا تَعْمَلُونَ خَبِيرًا {94}

ऐ ईमानदारों जब तुम ख़ुदा की राह में (जेहाद करने को) सफ़र करो तो (किसी के क़त्ल करने में जल्दी न करो बल्कि) अच्छी तरह जाच कर लिया करो और जो शख़्स (इज़हारे इस्लाम की ग़रज़ से) तुम्हे सलाम करे तो तुम बे सोचे समझे न कह दिया करो कि तू ईमानदार नहीं है (इससे ज़ाहिर होता है) कि तुम (फ़क़्त) दुनियावी आसाइश की तमन्ना रखते हो मगर इसी बहाने क़त्ल करके लूट लो और ये नहीं समझते कि (अगर यही है) तो ख़ुदा के यहाँ बहुत से ग़नीमतें हैं (मुसलमानों) पहले तुम ख़़ुद भी तो ऐसे ही थे फिर ख़ुदा ने तुमपर एहसान किया (कि बेखटके मुसलमान हो गए) ग़रज़ ख़ूब छानबीन कर लिया करो बेशक ख़ुदा तुम्हारे हर काम से ख़बरदार है (94) 

वल्मुहसनात

لاَّ يَسْتَوِي الْقَاعِدُونَ مِنَ الْمُؤْمِنِينَ غَيْرُ أُوْلِي الضَّرَرِ وَالْمُجَاهِدُونَ فِي سَبِيلِ اللّهِ بِأَمْوَالِهِمْ وَأَنفُسِهِمْ فَضَّلَ اللّهُ الْمُجَاهِدِينَ بِأَمْوَالِهِمْ وَأَنفُسِهِمْ عَلَى الْقَاعِدِينَ دَرَجَةً وَكُـلاًّ وَعَدَ اللّهُ الْحُسْنَى وَفَضَّلَ اللّهُ الْمُجَاهِدِينَ عَلَى الْقَاعِدِينَ أَجْرًا عَظِيمًا {95}

माज़ूर लोगों के सिवा जेहाद से मुँह छिपा के घर में बैठने वाले और ख़ुदा की राह में अपने जान व माल से जिहाद करने वाले हरगिज़ बराबर नहीं हो सकते (बल्कि) अपने जान व माल से जिहाद करने वालों को घर बैठे रहने वालें पर ख़ुदा ने दरजे के एतबार से बड़ी फ़ज़ीलत दी है (अगरचे) ख़ुदा ने सब इमानदारों से (ख़्वाह जिहाद करें या न करें) भलाई का वायदा कर लिया है मगर ग़ाजि़यों को खाना नशीनों पर अज़ीम सवाब के एतबार से ख़ुदा ने बड़ी फ़ज़ीलत दी है (95) 

वल्मुहसनात

دَرَجَاتٍ مِّنْهُ وَمَغْفِرَةً وَرَحْمَةً وَكَانَ اللّهُ غَفُورًا رَّحِيمًا {96}

(यानी उन्हें) अपनी तरफ़ से बड़े बड़े दरजे और बखि़्शश और रहमत (अता फ़रमाएगा) और ख़ुदा तो बड़ा बख़्शने वाला मेहरबान है (96) 

वल्मुहसनात

إِنَّ الَّذِينَ تَوَفَّاهُمُ الْمَلآئِكَةُ ظَالِمِي أَنْفُسِهِمْ قَالُواْ فِيمَ كُنتُمْ قَالُواْ كُنَّا مُسْتَضْعَفِينَ فِي الأَرْضِ قَالْوَاْ أَلَمْ تَكُنْ أَرْضُ اللّهِ وَاسِعَةً فَتُهَاجِرُواْ فِيهَا فَأُوْلَـئِكَ مَأْوَاهُمْ جَهَنَّمُ وَسَاءتْ مَصِيرًا {97}

बेशक जिन लोगों की क़ब्जे़ रूह फ़रिश्ते ने उस वक़त की है कि (दारूल हरब में पड़े) अपनी जानों पर ज़ुल्म कर रहे थे और फ़रिश्ते कब्जे़ रूह के बाद हैरत से कहते हैं तुम किस (हालत) ग़फ़लत में थे तो वह (माज़ेरत के लहजे में) कहते है कि हम तो रूए ज़मीन में बेकस थे तो फ़रिश्ते कहते हैं कि ख़ुदा की (ऐसी लम्बी चौड़ी) ज़मीन में इतनी सी गुन्जाइश न थी कि तुम (कहीं) हिजरत करके चले जाते बस ऐसे लोगों का ठिकाना जहन्नुम है और वह बुरा ठिकाना है (97) 

वल्मुहसनात

إِلاَّ الْمُسْتَضْعَفِينَ مِنَ الرِّجَالِ وَالنِّسَاء وَالْوِلْدَانِ لاَ يَسْتَطِيعُونَ حِيلَةً وَلاَ يَهْتَدُونَ سَبِيلاً {98}

मगर जो मर्द और औरतें और बच्चे इस क़दर बेबस हैं कि न तो (दारूल हरब से निकलने की) काई तदबीर कर सकते हैं और उनको अपनी रिहाई की कोई राह दिखाई देती है (98) 

वल्मुहसनात

فَأُوْلَـئِكَ عَسَى اللّهُ أَن يَعْفُوَ عَنْهُمْ وَكَانَ اللّهُ عَفُوًّا غَفُورًا {99}

तो उम्मीद है कि ख़ुदा ऐसे लोगों से दरगुज़रे करे और ख़ुदा तो बड़ा माफ़ करने वाला और बख्शने वाला है (99) 

वल्मुहसनात

وَمَن يُهَاجِرْ فِي سَبِيلِ اللّهِ يَجِدْ فِي الأَرْضِ مُرَاغَمًا كَثِيراً وَسَعَةً وَمَن يَخْرُجْ مِن بَيْتِهِ مُهَاجِرًا إِلَى اللّهِ وَرَسُولِهِ ثُمَّ يُدْرِكْهُ الْمَوْتُ فَقَدْ وَقَعَ أَجْرُهُ عَلى اللّهِ وَكَانَ اللّهُ غَفُورًا رَّحِيمًا {100}

और जो शख़्स ख़ुदा की राह में हिजरत करेगा तो वह रूए ज़मीन में बा फ़राग़त (चैन से रहने सहने के) बहुत से कुशादा मक़ाम पाएगा और जो शख़्स अपने घर से जिलावतन होकर ख़ुदा और उसके रसूल की तरफ़ निकल ख़ड़ा हुआ फिर उसे (मंजि़ले मक़सूद) तक पहुँचने से पहले मौत आ जाए तो ख़ुदा पर उसका सवाब लाजि़म हो गया और ख़ुदा तो बड़ा बख़्श ने वाला मेहरबान है ही (100) 

वल्मुहसनात

وَإِذَا ضَرَبْتُمْ فِي الأَرْضِ فَلَيْسَ عَلَيْكُمْ جُنَاحٌ أَن تَقْصُرُواْ مِنَ الصَّلاَةِ إِنْ خِفْتُمْ أَن يَفْتِنَكُمُ الَّذِينَ كَفَرُواْ إِنَّ الْكَافِرِينَ كَانُواْ لَكُمْ عَدُوًّا مُّبِينًا {101}

(मुसलमानों जब तुम रूए ज़मीन पर सफ़र करो) और तुमको इस अम्र का ख़ौफ़ हो कि कुफ़्फ़ार (असनाए नमाज़ में) तुमसे फ़साद करेंगे तो उसमें तुम्हारे वास्ते कुछ मुज़ाएक़ा नहीं कि नमाज़ में कुछ कम कर दिया करो बेशक कुफ़्फ़ार तो तुम्हारे ख़ुल्लम ख़ुल्ला दुश्मन हैं (101) 

वल्मुहसनात

وَإِذَا كُنتَ فِيهِمْ فَأَقَمْتَ لَهُمُ الصَّلاَةَ فَلْتَقُمْ طَآئِفَةٌ مِّنْهُم مَّعَكَ وَلْيَأْخُذُواْ أَسْلِحَتَهُمْ فَإِذَا سَجَدُواْ فَلْيَكُونُواْ مِن وَرَآئِكُمْ وَلْتَأْتِ طَآئِفَةٌ أُخْرَى لَمْ يُصَلُّواْ فَلْيُصَلُّواْ مَعَكَ وَلْيَأْخُذُواْ حِذْرَهُمْ وَأَسْلِحَتَهُمْ وَدَّ الَّذِينَ كَفَرُواْ لَوْ تَغْفُلُونَ عَنْ أَسْلِحَتِكُمْ وَأَمْتِعَتِكُمْ فَيَمِيلُونَ عَلَيْكُم مَّيْلَةً وَاحِدَةً وَلاَ جُنَاحَ عَلَيْكُمْ إِن كَانَ بِكُمْ أَذًى مِّن مَّطَرٍ أَوْ كُنتُم مَّرْضَى أَن تَضَعُواْ أَسْلِحَتَكُمْ وَخُذُواْ حِذْرَكُمْ إِنَّ اللّهَ أَعَدَّ لِلْكَافِرِينَ عَذَابًا مُّهِينًا {102}

और (ऐ रसूल) तुम मुसलमानों में मौजूद हो और (लड़ाई हो रही हो) कि तुम उनको नमाज़ पढ़ाने लगो तो (दो गिरोह करके) एक को लड़ाई के वास्ते छोड़ दो (और) उनमें से एक जमाअत तुम्हारे साथ नमाज़ पढ़े और अपने हथियार अपने साथ लिए रहे फिर जब (पहली रकअत के) सजदे कर (दूसरी रकअत फुरादा पढ़) ले तो तुम्हारे पीछे पुश्त पनाह बनें और दूसरी जमाअत जो (लड़ रही थी और) जब तक नमाज़ नहीं पढ़ने पायी है और (तुम्हारी दूसरी रकअत में) तुम्हारे साथ नमाज़ पढ़े और अपनी हिफ़ाज़त की चीजे़ और अपने हथियार (नमाज़ में साथ) लिए रहे कुफ़्फ़ार तो ये चाहते ही हैं कि काश अपने हथियारों और अपने साज़ व सामान से ज़रा भी ग़फ़लत करो तो एक बारगी सबके सब तुम पर टूट पड़ें हाँ अलबत्ता उसमें कुछ मुज़ाएक़ा नहीं कि (इत्तेफ़ाक़न) तुमको बारिश के सबब से कुछ तकलीफ़ पहुचे या तुम बीमार हो तो अपने हथियार (नमाज़ में) उतार के रख दो और अपनी हिफ़ाज़त करते रहो और ख़ुदा ने तो काफि़रों के लिए जि़ल्लत का अज़ाब तैयार कर रखा है (102) 

वल्मुहसनात

فَإِذَا قَضَيْتُمُ الصَّلاَةَ فَاذْكُرُواْ اللّهَ قِيَامًا وَقُعُودًا وَعَلَى جُنُوبِكُمْ فَإِذَا اطْمَأْنَنتُمْ فَأَقِيمُواْ الصَّلاَةَ إِنَّ الصَّلاَةَ كَانَتْ عَلَى الْمُؤْمِنِينَ كِتَابًا مَّوْقُوتًا {103}

फिर जब तुम नमाज़ अदा कर चुको तो उठते बैठते लेटते (ग़रज़ हर हाल में) ख़ुदा को याद करो फिर जब तुम (दुश्मनों से) मुतमईन हो जाओ तो (अपने मअमूल) के मुताबिक़ नमाज़ पढ़ा करो क्योंकि नमाज़ तो इमानदारों पर वक़्त मुय्यन करके फ़र्ज़ की गयी है (103) 

वल्मुहसनात

وَلاَ تَهِنُواْ فِي ابْتِغَاء الْقَوْمِ إِن تَكُونُواْ تَأْلَمُونَ فَإِنَّهُمْ يَأْلَمُونَ كَمَا تَأْلَمونَ وَتَرْجُونَ مِنَ اللّهِ مَا لاَ يَرْجُونَ وَكَانَ اللّهُ عَلِيمًا حَكِيمًا {104}

और (मुसलमानों) दुशमनों के पीछा करने में सुस्ती न करो अगर लड़ाई में तुमको तकलीफ़ पहुँचती है तो जैसी तुमको तकलीफ़ पहुँचती है उनको भी वैसी ही अज़ीयत होती है और (तुमको) ये भी (उम्मीद है कि) तुम ख़ुदा से वह वह उम्मीदें रखते हो जो (उनको) नसीब नहीं और ख़ुदा तो सबसे वाकि़फ़ (और) हिकमत वाला है (104) 

वल्मुहसनात

إِنَّا أَنزَلْنَا إِلَيْكَ الْكِتَابَ بِالْحَقِّ لِتَحْكُمَ بَيْنَ النَّاسِ بِمَا أَرَاكَ اللّهُ وَلاَ تَكُن لِّلْخَآئِنِينَ خَصِيمًا {105}

(ऐ रसूल) हमने तुमपर बरहक़ किताब इसलिए नाजि़ल की है कि ख़ुदा ने तुम्हारी हिदायत की है उसी तरह लोगों के दरमियान फ़ैसला करो और ख़्यानत करने वालों के तरफ़दार न बनो (105) 

वल्मुहसनात

وَاسْتَغْفِرِ اللّهَ إِنَّ اللّهَ كَانَ غَفُورًا رَّحِيمًا {106}

और (अपनी उम्मत के लिये) ख़ुदा से मग़फि़रत की दुआ माँगों बेशक ख़ुदा बड़ा बख़्शने वाला मेहरबान है (106) 

वल्मुहसनात

وَلاَ تُجَادِلْ عَنِ الَّذِينَ يَخْتَانُونَ أَنفُسَهُمْ إِنَّ اللّهَ لاَ يُحِبُّ مَن كَانَ خَوَّانًا أَثِيمًا {107}

और (ऐ रसूल) तुम (उन बदमाशों) की तरफ़ होकर (लोगों से) न लड़ो जो अपने ही (लोगों) से दग़ाबाज़ी करते हैं बेशक ख़ुदा ऐसे शख़्स को दोस्त नहीं रखता जो दग़ाबाज़ गुनाहगार हो (107) 

वल्मुहसनात

يَسْتَخْفُونَ مِنَ النَّاسِ وَلاَ يَسْتَخْفُونَ مِنَ اللّهِ وَهُوَ مَعَهُمْ إِذْ يُبَيِّتُونَ مَا لاَ يَرْضَى مِنَ الْقَوْلِ وَكَانَ اللّهُ بِمَا يَعْمَلُونَ مُحِيطًا {108}

लोगों से तो अपनी शरारत छुपाते हैं और (ख़ुदा से नहीं छुपा सकते) हालांकि वह तो उस वक़्त भी उनके साथ साथ है जब वह लोग रातों को (बैठकर) उन बातों के मशवरे करते हैं जिनसे ख़ुदा राज़ी नहीं और ख़ुदा तो उनकी सब करतूतों को (इल्म के अहाते में) घेरे हुए है (108) 

वल्मुहसनात

هَاأَنتُمْ هَـؤُلاء جَادَلْتُمْ عَنْهُمْ فِي الْحَيَاةِ الدُّنْيَا فَمَن يُجَادِلُ اللّهَ عَنْهُمْ يَوْمَ الْقِيَامَةِ أَم مَّن يَكُونُ عَلَيْهِمْ وَكِيلاً {109}

(मुसलमानों) ख़बरदार हो जाओ भला दुनिया की (ज़रा सी) जि़न्दगी में तो तुम उनकी तरफ़ होकर लड़ने खड़े हो गए (मगर ये तो बताओ) फिर क़यामत के दिन उनका तरफ़दार बनकर ख़ुदा से कौन लड़ेगा या कौन उनका वकील होगा (109) 

वल्मुहसनात

وَمَن يَعْمَلْ سُوءًا أَوْ يَظْلِمْ نَفْسَهُ ثُمَّ يَسْتَغْفِرِ اللّهَ يَجِدِ اللّهَ غَفُورًا رَّحِيمًا {110}

और जो शख़्स कोई बुरा काम करे या (किसी तरह) अपने नफ़्स पर ज़ुल्म करे उसके बाद ख़ुदा से अपनी मग़फि़रत की दुआ माँगे तो ख़ुदा को बड़ा बख़्शने वाला मेहरबान पाएगा (110) 

वल्मुहसनात

وَمَن يَكْسِبْ إِثْمًا فَإِنَّمَا يَكْسِبُهُ عَلَى نَفْسِهِ وَكَانَ اللّهُ عَلِيمًا حَكِيمًا {111}

और जो शख़्स कोई गुनाह करता है तो उससे कुछ अपना ही नुक़सान करता है और ख़ुदा तो (हर चीज़ से) वाकि़फ़ (और) बड़ी तदबीर वाला है (111) 

वल्मुहसनात

وَمَن يَكْسِبْ خَطِيئَةً أَوْ إِثْمًا ثُمَّ يَرْمِ بِهِ بَرِيئًا فَقَدِ احْتَمَلَ بُهْتَانًا وَإِثْمًا مُّبِينًا {112}

और जो शख़्स कोई ख़ता या गुनाह करे फिर उसे किसी बेक़सूर के सर थोपे तो उसने एक बड़े (इफ़तेरा) और सरीही गुनाह को अपने ऊपर लाद लिया (112) 

वल्मुहसनात

وَلَوْلاَ فَضْلُ اللّهِ عَلَيْكَ وَرَحْمَتُهُ لَهَمَّت طَّآئِفَةٌ مُّنْهُمْ أَن يُضِلُّوكَ وَمَا يُضِلُّونَ إِلاُّ أَنفُسَهُمْ وَمَا يَضُرُّونَكَ مِن شَيْءٍ وَأَنزَلَ اللّهُ عَلَيْكَ الْكِتَابَ وَالْحِكْمَةَ وَعَلَّمَكَ مَا لَمْ تَكُنْ تَعْلَمُ وَكَانَ فَضْلُ اللّهِ عَلَيْكَ عَظِيمًا {113}

और (ऐ रसूल) अगर तुमपर ख़ुदा का फ़ज़ल (व करम) और उसकी मेहरबानी न होती तो उन (बदमाशों) में से एक गिरोह तुमको गुमराह करने का ज़रूर क़सद करता हालाँकि वह लोग बस अपने आप को गुमराह कर रहे हैं और यह लोग तुम्हें कुछ भी ज़रर नहीं पहुँचा सकते और ख़ुदा ही ने तो (मेहरबानी की कि) तुमपर अपनी किताब और हिकमत नाजि़ल की और जो बातें तुम नहीं जानते थे तुम्हें सिखा दी और तुम पर तो ख़ुदा का बड़ा फ़ज़ल है (113) 

वल्मुहसनात

لاَّ خَيْرَ فِي كَثِيرٍ مِّن نَّجْوَاهُمْ إِلاَّ مَنْ أَمَرَ بِصَدَقَةٍ أَوْ مَعْرُوفٍ أَوْ إِصْلاَحٍ بَيْنَ النَّاسِ وَمَن يَفْعَلْ ذَلِكَ ابْتَغَاء مَرْضَاتِ اللّهِ فَسَوْفَ نُؤْتِيهِ أَجْرًا عَظِيمًا {114}

(ऐ रसूल) उनके राज़ की बातों में अक्सर में भलाई (का तो नाम तक) नहीं मगर (हाँ) जो शख़्स किसी को सदक़ा देने या अच्छे काम करने या लोगों के दरमियान मेल मिलाप कराने का हुक्म दे (तो अलबत्ता एक बात है) और जो शख़्स (महज़) ख़ुदा की ख़ुशनूदी की ख़्वाहिश में ऐसे काम करेगा तो हम अनक़रीब ही उसे बड़ा अच्छा बदला अता फरमाएंगे (114) 

वल्मुहसनात

وَمَن يُشَاقِقِ الرَّسُولَ مِن بَعْدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُ الْهُدَى وَيَتَّبِعْ غَيْرَ سَبِيلِ الْمُؤْمِنِينَ نُوَلِّهِ مَا تَوَلَّى وَنُصْلِهِ جَهَنَّمَ وَسَاءتْ مَصِيرًا {115}

और जो शख़्स राहे रास्त के ज़ाहिर होने के बाद रसूल से सरकशी करे और मोमिनीन के तरीक़े के सिवा किसी और राह पर चले तो जिधर वह फिर गया है हम भी उधर ही फेर देंगे और (आखि़र) उसे जहन्नुम में झोंक देंगे और वह तो बहुत ही बुरा ठिकाना है (115) 

वल्मुहसनात

إِنَّ اللّهَ لاَ يَغْفِرُ أَن يُشْرَكَ بِهِ وَيَغْفِرُ مَا دُونَ ذَلِكَ لِمَن يَشَاء وَمَن يُشْرِكْ بِاللّهِ فَقَدْ ضَلَّ ضَلاَلاً بَعِيدًا {116}

ख़ुदा बेशक उसको तो नहीं बख़्शता कि उसका कोई और शरीक बनाया जाए हाँ उसके सिवा जो गुनाह हो जिसको चाहे बख़्श दे और (माज़ अल्लाह) जिसने किसी को ख़ुदा का शरीक बनाया तो वह बस भटक के बहुत दूर जा पड़ा (116) 

वल्मुहसनात

إِن يَدْعُونَ مِن دُونِهِ إِلاَّ إِنَاثًا وَإِن يَدْعُونَ إِلاَّ شَيْطَانًا مَّرِيدًا {117}

मुशरेकीन ख़ुदा को छोड़कर बस औरतों ही की परसतिश करते हैं (यानी बुतों की जो उनके) ख़्याल में औरतें हैं (दर हक़ीक़त) ये लोग सरकश शैतान की परसतिश करते हैं (117) 

वल्मुहसनात

لَّعَنَهُ اللّهُ وَقَالَ لَأَتَّخِذَنَّ مِنْ عِبَادِكَ نَصِيبًا مَّفْرُوضًا {118}

जिसपर ख़ुदा ने लानत की है और जिसने (इब्तिदा ही में) कहा था कि (ख़ुदावन्दा) मैं तेरे बन्दों में से कुछ ख़ास लोगों को (अपनी तरफ) ज़रूर लूँगा (118) 

वल्मुहसनात

وَلأُضِلَّنَّهُمْ وَلأُمَنِّيَنَّهُمْ وَلآمُرَنَّهُمْ فَلَيُبَتِّكُنَّ آذَانَ الأَنْعَامِ وَلآمُرَنَّهُمْ فَلَيُغَيِّرُنَّ خَلْقَ اللّهِ وَمَن يَتَّخِذِ الشَّيْطَانَ وَلِيًّا مِّن دُونِ اللّهِ فَقَدْ خَسِرَ خُسْرَانًا مُّبِينًا {119}

और फिर उन्हें ज़रूर गुमराह करूंगा और उन्हें बड़ी बड़ी उम्मीदें भी ज़रूर दिलाऊॅगा और यक़ीनन उन्हें सिखा दूंगा फिर वो (बुतों के वास्ते) जानवरों के काम ज़रूर चीर फाड़ करेंगे और अलबत्ता उनसे कह दूंगा बस फिर वो (मेरी तालीम के मुवाफि़क़) ख़ुदा की बनाई हुयी सूरत को ज़रूर बदल डालेंगे और (ये याद रहे कि) जिसने ख़ुदा को छोड़कर शैतान को अपना सरपरस्त बनाया तो उसने खुल्लम खुल्ला सख़्त घाटा उठाया (119) 

वल्मुहसनात

يَعِدُهُمْ وَيُمَنِّيهِمْ وَمَا يَعِدُهُمُ الشَّيْطَانُ إِلاَّ غُرُورًا {120}

शैतान उनसे अच्छे अच्छे वायदे भी करता है (और बड़ी बड़ी) उम्मीदें भी दिलाता है और शैतान उनसे जो कुछ वायदे भी करता है वह बस निरा धोखा (ही धोखा) है (120) 

वल्मुहसनात

أُوْلَـئِكَ مَأْوَاهُمْ جَهَنَّمُ وَلاَ يَجِدُونَ عَنْهَا مَحِيصًا {121}

यही तो वह लोग हैं जिनका ठिकाना बस जहन्नुम है और वहाँ से भागने की जगह भी न पाएंगे (121) 

वल्मुहसनात

وَالَّذِينَ آمَنُواْ وَعَمِلُواْ الصَّالِحَاتِ سَنُدْخِلُهُمْ جَنَّاتٍ تَجْرِي مِن تَحْتِهَا الأَنْهَارُ خَالِدِينَ فِيهَا أَبَدًا وَعْدَ اللّهِ حَقًّا وَمَنْ أَصْدَقُ مِنَ اللّهِ قِيلاً {122}

और जिन लोगों ने ईमान क़ुबूल किया और अच्छे अच्छे काम किए उन्हें हम अनक़रीब ही (बेहिश्त के) उन (हरे भरे) बाग़ों में जा पहुँचाएगें जिनके (दरख़्तों के) नीचे नहरें जारी होंगी और ये लोग उसमें हमेशा आबादुल आबाद तक रहेंगे (ये उनसे) ख़ुदा का पक्का वायदा है और ख़ुदा से ज़्यादा (अपनी) बात में पक्का कौन होगा (122) 

वल्मुहसनात

لَّيْسَ بِأَمَانِيِّكُمْ وَلا أَمَانِيِّ أَهْلِ الْكِتَابِ مَن يَعْمَلْ سُوءًا يُجْزَ بِهِ وَلاَ يَجِدْ لَهُ مِن دُونِ اللّهِ وَلِيًّا وَلاَ نَصِيرًا {123}

न तुम लोगों की आरज़ू से (कुछ काम चल सकता है) न एहले किताब की तमन्ना से कुछ हासिल हो सकता है बल्कि (जैसा काम वैसा दाम) जो बुरा काम करेगा उसे उसका बदला दिया जाएगा और फिर ख़ुदा के सिवा किसी को न तो अपना सरपरस्त पाएगा और न मददगार (123) 

वल्मुहसनात

وَمَن يَعْمَلْ مِنَ الصَّالِحَاتَ مِن ذَكَرٍ أَوْ أُنثَى وَهُوَ مُؤْمِنٌ فَأُوْلَـئِكَ يَدْخُلُونَ الْجَنَّةَ وَلاَ يُظْلَمُونَ نَقِيرًا {124}

और जो शख़्स अच्छे अच्छे काम करेगा (ख़्वाह) मर्द हो या औरत और ईमानदार (भी) हो तो ऐसे लोग बेहिश्त में (बेखटके) जा पहुचेंगे और उनपर तिल भर भी ज़ुल्म न किया जाएगा (124) 

वल्मुहसनात

وَمَنْ أَحْسَنُ دِينًا مِّمَّنْ أَسْلَمَ وَجْهَهُ لله وَهُوَ مُحْسِنٌ واتَّبَعَ مِلَّةَ إِبْرَاهِيمَ حَنِيفًا وَاتَّخَذَ اللّهُ إِبْرَاهِيمَ خَلِيلاً {125}

और उस शख़्स से दीन में बेहतर कौन होगा जिसने ख़ुदा के सामने अपना सरे तसलीम झुका दिया और नेको कार भी है और इबराहीम के तरीके पर चलता है जो बातिल से कतरा कर चलते थे और ख़ुदा ने इब्राहिम को तो अपना ख़लिस दोस्त बना लिया (125) 

वल्मुहसनात

وَللّهِ مَا فِي السَّمَاوَاتِ وَمَا فِي الأَرْضِ وَكَانَ اللّهُ بِكُلِّ شَيْءٍ مُّحِيطًا {126}

और जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में है (ग़रज़ सब कुछ) ख़ुदा ही का है और ख़ुदा ही सब चीज़ को (अपनी) कु़दरत से घेरे हुए है (126) 

वल्मुहसनात

وَيَسْتَفْتُونَكَ فِي النِّسَاء قُلِ اللّهُ يُفْتِيكُمْ فِيهِنَّ وَمَا يُتْلَى عَلَيْكُمْ فِي الْكِتَابِ فِي يَتَامَى النِّسَاء الَّلاتِي لاَ تُؤْتُونَهُنَّ مَا كُتِبَ لَهُنَّ وَتَرْغَبُونَ أَن تَنكِحُوهُنَّ وَالْمُسْتَضْعَفِينَ مِنَ الْوِلْدَانِ وَأَن تَقُومُواْ لِلْيَتَامَى بِالْقِسْطِ وَمَا تَفْعَلُواْ مِنْ خَيْرٍ فَإِنَّ اللّهَ كَانَ بِهِ عَلِيمًا {127}

(ऐ रसूल) ये लोग तुमसे (यतीम लड़कियों) से निकाह के बारे में फ़तवा तलब करते हैं तुम उनसे कह दो कि ख़ुदा तुम्हें उनसे (निकाह करने) की इजाज़त देता है और जो हुक्म (मनाही का) कु़रान में तुम्हें (पहले) सुनाया जा चुका है वह हक़ीक़तन उन यतीम लड़कियों के वास्ते था जिन्हें तुम उनका मुअय्यन (तय) किया हुआ हक़ नहीं देते और चाहते हो (कि यॅू ही) उनसे निकाह कर लो और उन कमज़ोर नातवाँ {कमजोर} बच्चों के बारे में हुक्म फ़रमाता है और (वो) ये है कि तुम यतीमों के हुक़ूक़ के बारे में इन्साफ पर क़ायम रहो और (यक़ीन रखो कि) जो कुछ तुम नेकी करोगे तो ख़ुदा ज़रूर वाकि़फ़कार है (127) 

वल्मुहसनात

وَإِنِ امْرَأَةٌ خَافَتْ مِن بَعْلِهَا نُشُوزًا أَوْ إِعْرَاضًا فَلاَ جُنَاْحَ عَلَيْهِمَا أَن يُصْلِحَا بَيْنَهُمَا صُلْحًا وَالصُّلْحُ خَيْرٌ وَأُحْضِرَتِ الأَنفُسُ الشُّحَّ وَإِن تُحْسِنُواْ وَتَتَّقُواْ فَإِنَّ اللّهَ كَانَ بِمَا تَعْمَلُونَ خَبِيرًا {128}

और अगर कोई औरत अपने शौहर की ज़्यादती व बेतवज्जोही से (तलाक़ का) ख़ौफ़ रखती हो तो मियाँ बीवी के बाहम किसी तरह मिलाप कर लेने में दोनों (में से किसी पर) कुछ गुनाह नहीं है और सुलह तो (बहरहाल) बेहतर है और बुख़्ल से तो क़रीब क़रीब हर तबियत के हम पहलू है और अगर तुम नेकी करो और परहेजदारी करो तो ख़ुदा तुम्हारे हर काम से ख़बरदार है (वही तुमको अज्र देगा) (128) 

वल्मुहसनात

وَلَن تَسْتَطِيعُواْ أَن تَعْدِلُواْ بَيْنَ النِّسَاء وَلَوْ حَرَصْتُمْ فَلاَ تَمِيلُواْ كُلَّ الْمَيْلِ فَتَذَرُوهَا كَالْمُعَلَّقَةِ وَإِن تُصْلِحُواْ وَتَتَّقُواْ فَإِنَّ اللّهَ كَانَ غَفُورًا رَّحِيمًا {129}

और अगरचे तुम बहुतेरा चाहो (लेकिन) तुममें इतनी सकत तो हरगिज़ नहीं है कि अपनी कई बीवियों में (पूरा पूरा) इन्साफ़ कर सको (मगर) ऐसा भी तो न करो कि (एक ही की तरफ़) हमातन माएल (झुक) हो जाओ कि (दूसरी को अधड़ में) लटकी हुयी छोड़ दो और अगर बाहम मेल कर लो और (ज़्यादती से) बचे रहो तो ख़ुदा यक़ीनन बड़ा बख़्शने वाला मेहरबान है (129) 

वल्मुहसनात

وَإِن يَتَفَرَّقَا يُغْنِ اللّهُ كُلاًّ مِّن سَعَتِهِ وَكَانَ اللّهُ وَاسِعًا حَكِيمًا {130}

और अगर दोनों मियाँ बीवी एक दूसरे से बाज़रिए तलाक़ जुदा हो जाएं तो ख़ुदा अपने वसी ख़ज़ाने से (फ़रागु़ल बाली अता फ़रमाकर) दोनों को (एक दूसरे से) बेनियाज़ कर देगा और ख़ुदा तो बड़ी गुन्जाइश और तदबीर वाला है और जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में है (ग़रज सब कुछ) ख़ुदा ही का है (130) 

वल्मुहसनात

وَللّهِ مَا فِي السَّمَاوَاتِ وَمَا فِي الأَرْضِ وَلَقَدْ وَصَّيْنَا الَّذِينَ أُوتُواْ الْكِتَابَ مِن قَبْلِكُمْ وَإِيَّاكُمْ أَنِ اتَّقُواْ اللّهَ وَإِن تَكْفُرُواْ فَإِنَّ لِلّهِ مَا فِي السَّمَاوَاتِ وَمَا فِي الأَرْضِ وَكَانَ اللّهُ غَنِيًّا حَمِيدًا {131}

और जिन लोगों को तुमसे पहले किताबे ख़ुदा अता की गयी है उनको और तुमको भी उसकी हमने वसीयत की थी कि (ख़ुदा) (की नाफ़रमानी) से डरते रहो और अगर (कहीं) तुमने कुफ़्र इख़्तेयार किया तो (याद रहे कि) जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में है (ग़रज सब कुछ) ख़ुदा ही का है (जो चाहे कर सकता है) और ख़ुदा तो सबसे बेपरवा और (हमा सिफ़त) मौसूफ़ हर हम्द वाला है (131) 

वल्मुहसनात

وَلِلّهِ مَا فِي السَّمَاوَاتِ وَمَا فِي الأَرْضِ وَكَفَى بِاللّهِ وَكِيلاً {132}

जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में है (ग़रज सब कुछ) ख़ास ख़ुदा ही का है और ख़ुदा तो कारसाज़ी के लिये काफ़ी है (132) 

वल्मुहसनात

إِن يَشَأْ يُذْهِبْكُمْ أَيُّهَا النَّاسُ وَيَأْتِ بِآخَرِينَ وَكَانَ اللّهُ عَلَى ذَلِكَ قَدِيرًا {133}

ऐ लोगों अगर ख़ुदा चाहे तो तुमको (दुनिया के परदे से) बिल्कुल उठा ले और (तुम्हारे बदले) दूसरों को ला (बसाए) और ख़ुदा तो इसपर क़ादिर व तवाना है (133) 

वल्मुहसनात

مَّن كَانَ يُرِيدُ ثَوَابَ الدُّنْيَا فَعِندَ اللّهِ ثَوَابُ الدُّنْيَا وَالآخِرَةِ وَكَانَ اللّهُ سَمِيعًا بَصِيرًا {134}

और जो शख़्स (अपने आमाल का) बदला दुनिया ही में चाहता है तो ख़ुदा के पास दुनिया व आखि़रत दोनों का अज्र मौजूद है और ख़ुदा तो हर शख़्स की सुनता और सबको देखता है (134) 

वल्मुहसनात

يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُواْ كُونُواْ قَوَّامِينَ بِالْقِسْطِ شُهَدَاء لِلّهِ وَلَوْ عَلَى أَنفُسِكُمْ أَوِ الْوَالِدَيْنِ وَالأَقْرَبِينَ إِن يَكُنْ غَنِيًّا أَوْ فَقَيرًا فَاللّهُ أَوْلَى بِهِمَا فَلاَ تَتَّبِعُواْ الْهَوَى أَن تَعْدِلُواْ وَإِن تَلْوُواْ أَوْ تُعْرِضُواْ فَإِنَّ اللّهَ كَانَ بِمَا تَعْمَلُونَ خَبِيرًا {135}

ऐ ईमानवालों मज़बूती के साथ इन्साफ़ पर क़ायम रहो और ख़ुदा के लये गवाही दो अगरचे (ये गवाही) ख़ुद तुम्हारे या तुम्हारे माँ बाप या क़राबतदारों के लिए खिलाफ़ (ही क्यो) न हो ख़्वाह मालदार हो या मोहताज (क्योंकि) ख़ुदा तो (तुम्हारी बनिस्बत) उनपर ज़्यादा मेहरबान है तो तुम (हक़ से) कतराने में ख़्वाहिशे नफ़सियानी की पैरवी न करो और अगर घुमा फिरा के गवाही दोगे या बिल्कुल इन्कार करोगे तो (याद रहे जैसी करनी वैसी भरनी क्योंकि) जो कुछ तुम करते हो ख़ुद उससे ख़ूब वाकि़फ़ है (135) 

वल्मुहसनात

يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُواْ آمِنُواْ بِاللّهِ وَرَسُولِهِ وَالْكِتَابِ الَّذِي نَزَّلَ عَلَى رَسُولِهِ وَالْكِتَابِ الَّذِيَ أَنزَلَ مِن قَبْلُ وَمَن يَكْفُرْ بِاللّهِ وَمَلاَئِكَتِهِ وَكُتُبِهِ وَرُسُلِهِ وَالْيَوْمِ الآخِرِ فَقَدْ ضَلَّ ضَلاَلاً بَعِيدًا {136}

ऐ ईमानवालों ख़ुदा और उसके रसूल (मोहम्मद (स०)) पर और उसकी किताब पर जो उसने अपने रसूल (मोहम्मद) पर नाजि़ल की है और उस किताब पर जो उसने पहले नाजि़ल की ईमान लाओ और (ये भी याद रहे कि) जो शख़्स ख़ुदा और उसके फ़रिश्तों और उसकी किताबों और उसके रसूलों और रोज़े आखि़रत का मुन्किर हुआ तो वह राहे रास्त से भटक के दूर जा पड़ा (136) 

वल्मुहसनात

إِنَّ الَّذِينَ آمَنُواْ ثُمَّ كَفَرُواْ ثُمَّ آمَنُواْ ثُمَّ كَفَرُواْ ثُمَّ ازْدَادُواْ كُفْرًا لَّمْ يَكُنِ اللّهُ لِيَغْفِرَ لَهُمْ وَلاَ لِيَهْدِيَهُمْ سَبِيلاً {137}

बेशक जो लोग ईमान लाए उसके बाद फि़र काफि़र हो गए फिर ईमान लाए और फिर उसके बाद काफि़र हो गये और कुफ़्र में बढ़ते चले गए तो ख़ुदा उनकी मग़फि़रत करेगा और न उन्हें राहे रास्त की हिदायत ही करेगा (137) 

वल्मुहसनात

بَشِّرِ الْمُنَافِقِينَ بِأَنَّ لَهُمْ عَذَابًا أَلِيمًا {138}

(ऐ रसूल) मुनाफि़क़ों को ख़ुशख़बरी दे दो कि उनके लिए ज़रूर दर्दनाक अज़ाब है (138) 

वल्मुहसनात

الَّذِينَ يَتَّخِذُونَ الْكَافِرِينَ أَوْلِيَاء مِن دُونِ الْمُؤْمِنِينَ أَيَبْتَغُونَ عِندَهُمُ الْعِزَّةَ فَإِنَّ العِزَّةَ لِلّهِ جَمِيعًا {139}

जो लोग मोमिनों को छोड़कर काफि़रों को अपना सरपरस्त बनाते हैं क्या उनके पास इज़्ज़त (व आबरू) की तलाश करते हैं इज़्ज़त सारी बस ख़ुदा ही के लिए ख़ास है (139) 

वल्मुहसनात

وَقَدْ نَزَّلَ عَلَيْكُمْ فِي الْكِتَابِ أَنْ إِذَا سَمِعْتُمْ آيَاتِ اللّهِ يُكَفَرُ بِهَا وَيُسْتَهْزَأُ بِهَا فَلاَ تَقْعُدُواْ مَعَهُمْ حَتَّى يَخُوضُواْ فِي حَدِيثٍ غَيْرِهِ إِنَّكُمْ إِذًا مِّثْلُهُمْ إِنَّ اللّهَ جَامِعُ الْمُنَافِقِينَ وَالْكَافِرِينَ فِي جَهَنَّمَ جَمِيعًا {140}

(मुसलमानों) हालाँकि ख़ुदा तुम पर अपनी किताब कु़रान में ये हुक्म नाजि़ल कर चुका है कि जब तुम सुन लो कि ख़ुदा की आयतों से ईन्कार किया जाता है और उससे मसख़रापन किया जाता है तो तुम उन (कुफ़्फ़ार) के साथ मत बैठो यहाँ तक कि वह किसी दूसरी बात में ग़ौर करने लगें वरना तुम भी उस वक़्त उनके बराबर हो जाओगे उसमें तो शक ही नहीं कि ख़ुदा तमाम मुनाफि़क़ों और काफि़रों को (एक न एक दिन) जहन्नुम में जमा ही करेगा (140) 

वल्मुहसनात

الَّذِينَ يَتَرَبَّصُونَ بِكُمْ فَإِن كَانَ لَكُمْ فَتْحٌ مِّنَ اللّهِ قَالُواْ أَلَمْ نَكُن مَّعَكُمْ وَإِن كَانَ لِلْكَافِرِينَ نَصِيبٌ قَالُواْ أَلَمْ نَسْتَحْوِذْ عَلَيْكُمْ وَنَمْنَعْكُم مِّنَ الْمُؤْمِنِينَ فَاللّهُ يَحْكُمُ بَيْنَكُمْ يَوْمَ الْقِيَامَةِ وَلَن يَجْعَلَ اللّهُ لِلْكَافِرِينَ عَلَى الْمُؤْمِنِينَ سَبِيلاً {141}

(वो मुनाफ़ेकीन) जो तुम्हारे मुन्तजि़र है (कि देखिए फ़तेह होती है या शिकस्त) तो अगर ख़ुदा की तरफ़ से तुम्हें फ़तेह हुयी तो कहने लगे कि क्या हम तुम्हारे साथ न थे और अगर (फ़तेह का) हिस्सा काफि़रों को मिला तो (काफि़रों के तरफ़दार बनकर) कहते हैं क्या हम तुमपर ग़ालिब न आ गए थे (मगर क़सदन तुमको छोड़ दिया) और तुमको मोमिनीन (के हाथों) से हमने बचाया नहीं था (मुनाफि़क़ों) क़यामत के दिन तो ख़ुदा तुम्हारे दरमियान फै़सला करेगा और ख़ुदा ने काफि़रों को मोमिनीन पर वर {ऊँचा} रहने की हरगिज़ कोई राह नहीं क़रार दी है (141) 

वल्मुहसनात

إِنَّ الْمُنَافِقِينَ يُخَادِعُونَ اللّهَ وَهُوَ خَادِعُهُمْ وَإِذَا قَامُواْ إِلَى الصَّلاَةِ قَامُواْ كُسَالَى يُرَآؤُونَ النَّاسَ وَلاَ يَذْكُرُونَ اللّهَ إِلاَّ قَلِيلاً {142}

बेशक मुनाफि़क़ीन (अपने ख़्याल में) ख़ुदा को फरेब देते हैं हालाँकि ख़ुदा ख़ुद उन्हें धोखा देता है और ये लोग जब नमाज़ पढ़ने खड़े होते हैं तो (बे दिल से) अलकसाए हुए खड़े होते हैं और सिर्फ लोगों को दिखाते हैं और दिल से तो ख़ुदा को कुछ यू ही सा याद करते हैं (142) 

वल्मुहसनात

مُّذَبْذَبِينَ بَيْنَ ذَلِكَ لاَ إِلَى هَـؤُلاء وَلاَ إِلَى هَـؤُلاء وَمَن يُضْلِلِ اللّهُ فَلَن تَجِدَ لَهُ سَبِيلاً {143}

इस कुफ़्र व इमान के बीच अधड़ में पड़े झूल रहे हैं न उन (मुसलमानों) की तरफ़ न उन काफि़रों की तरफ़ और (ऐ रसूल) जिसे ख़ुदा गुमराही में छोड़ दे उसकी (हिदायत की) तुम हरगिज़ सबील नहीं कर सकते (143) 

वल्मुहसनात

يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُواْ لاَ تَتَّخِذُواْ الْكَافِرِينَ أَوْلِيَاء مِن دُونِ الْمُؤْمِنِينَ أَتُرِيدُونَ أَن تَجْعَلُواْ لِلّهِ عَلَيْكُمْ سُلْطَانًا مُّبِينًا {144}

ऐ ईमान वालों मोमिनीन को छोड़कर काफि़रों को (अपना) सरपरस्त न बनाओ क्या ये तुम चाहते हो कि ख़ुदा का सरीही इल्ज़ाम अपने सर क़ायम कर लो (144) 

वल्मुहसनात

إِنَّ الْمُنَافِقِينَ فِي الدَّرْكِ الأَسْفَلِ مِنَ النَّارِ وَلَن تَجِدَ لَهُمْ نَصِيرًا {145}

इसमें तो शक ही नहीं कि मुनाफि़क जहन्नुम के सबसे नीचे तबके़ में होंगे और (ऐ रसूल) तुम वहाँ किसी को उनका हिमायती भी न पाओगे (145) 

वल्मुहसनात

إِلاَّ الَّذِينَ تَابُواْ وَأَصْلَحُواْ وَاعْتَصَمُواْ بِاللّهِ وَأَخْلَصُواْ دِينَهُمْ لِلّهِ فَأُوْلَـئِكَ مَعَ الْمُؤْمِنِينَ وَسَوْفَ يُؤْتِ اللّهُ الْمُؤْمِنِينَ أَجْرًا عَظِيمًا {146}

मगर (हाँ) जिन लोगों ने (निफ़ाक़ से) तौबा कर ली और अपनी हालत दुरूस्त कर ली और ख़ुदा से लगे लिपटे रहे और अपने दीन को महज़ ख़ुदा के वास्ते निरा खरा कर लिया तो ये लोग मोमिनीन के साथ (बेहिश्त में) होंगे और मोमिनीन को ख़ुदा अनक़रीब ही बड़ा (अच्छा) बदला अता फ़रमाएगा (146) 

वल्मुहसनात

مَّا يَفْعَلُ اللّهُ بِعَذَابِكُمْ إِن شَكَرْتُمْ وَآمَنتُمْ وَكَانَ اللّهُ شَاكِرًا عَلِيمًا {147}

अगर तुमने ख़ुदा का शुक्र किया और उसपर ईमान लाए तो ख़ुदा तुम पर अज़ाब करके क्या करेगा बल्कि ख़ुदा तो (ख़ुद शुक्र करने वालों का) क़दरदा और वाकि़फ़कार है (147)